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जानने याला है। जिस समय वह देखेगा, उस समय जानेगा नहीं और जिस समय जानेगा, उस समय देखेगा नहीं। इस प्रकार एक समय में एक साथ सामान्य-विशेष को जानने वाला उपयोग नहीं होगा। अतः उनमें सर्वदर्शिख तथा सर्वज्ञत्य भी नहीं बन सकता।
केवलणाणमणंतं जहेव तह दंसणं पि पण्णत्तं। सागारग्गहणाहि य णियमपरित्तं अणागारं ॥14॥
केवलज्ञानमनन्तं यथैय तथा दर्शनमपि प्रज्ञप्तम्।
साकारग्रहणेन च नियमपरीतमनाकारम् ॥14॥ शब्दार्थ--जहेव-जिस प्रकार; केवलणाणमणतं-केवलज्ञान अनन्त (है); तह-वैसे (ही); दंसणं-दर्शन: पि-भी; पपणतं-कहा गया (है); (किन्तु) सागारग्गहणाहि-साकार ग्रहण (की अपेक्षा) से; य-और (पाद-पूरण के लिए); अणागारं-अनाकार (दर्शन); णियम-नियम (से); परित-अल्प (परिमित) हैं।
केवली का दर्शन व ज्ञान अनन्त : भावार्थ-आगम में केवली भगवान का दर्शन और ज्ञान अनन्त कहा गया है। परन्तु उसके दर्शन, ज्ञान के उपयोग में क्रम माना जाय तो साकार-ग्रहण की अपेक्षा से परिमित विषय वाला होगा, जिससे उनके दर्शन में अनन्तता नहीं बन सकती। अतएव केवली भगवान् में एक समय में ही दर्शन-ज्ञानमय एक उपयोग मानना चाहिए।
भण्णइजह चउणाणी जुज्जई णियमा तहेव एवं पि। भण्णइ ण पंचणाणी जहेच अरहा तहेयं पि ॥15॥
भण्यते यथा चतुर्ज्ञानी युज्यते नियमात् तथैवेतदपि।
भण्यते न पंचज्ञानी यथैवार्हन् तथैवमपि ॥15|| शब्दार्थ-भण्णइ-कहता है; जह-जिस प्रकार; चउणाणी-चार ज्ञान वाला; जुज्जइ-संयुक्त (होता) है; तहेव-उसी प्रकार ही; णियमा-नियम से; एयं-यह पि-भी (है); (सिद्धान्ती) भण्णइ-कहता है; जहेब-जिस प्रकार (से) ही; अरहा केवली (सर्वज्ञ); पंचणाणी-पाँच ज्ञान बाले; ण-नहीं; तहाउस प्रकार; एवं-यह; पि-भी;
1.
यरिण।