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सम्मइसुतं
अदष्टमज्ञातं च केवली एव भाषते सदापि । एकसमये खलु वचनविकल्पो न सम्भवति ॥12॥
शब्दार्थ-केवली-केवली (भगवान); एव-ही; सया-सदा, बि-ही; अद्दिटूठं--अदृष्ट च-और; अण्णाचं अज्ञात; भासइ-बोलते (); हंदी-निश्चय (से); एगसमयम्मि-एक समय में; वयणवियप्पो-वचन-विकल्प; ण-नहीं संभवइ-सम्भव है।
केवली ही दृष्ट, बात पदार्थों के एक समय में उपदेशक : भावार्थ-केवली सदा ही अदृष्ट, अज्ञात पदार्थों का कथन करते हैं-ऐसा कहने से वे दृष्ट एवं ज्ञात पदार्थों के एक समय में उपदेशक होते हैं, यह वचन नहीं बन सकता
विशेष-आगम का यह कथन है कि केवली सर्वज्ञ सदा दृष्ट एवं ज्ञात पदार्थों के ही एक समय में उपदेशक होते हैं। यदि उनमें क्रमपूर्वक उपयोग माना जाय, तो जिस क्षण पदार्थ दृष्ट होगा, दूसरे समय में वही अदृष्ट हो जाएगा। इसी प्रकार जो पदार्थ एक समय में ज्ञात होगा, दूसरे समय में वही अज्ञात हो जाएगा। अतः ऐसा मानने पर केवलो भगवान में सर्वदर्शित्व तथा सर्वज्ञातत्व की सिद्धि नहीं हो सकती।
अण्णायं पासंतो अद्दिटुं च अरहा वियाणंतो। किं जाणइ किं पासइ कह सवण्णु त्ति वा होइ ॥15॥
अज्ञातं पश्यन्नदृष्टं चाहन विजानानः । किं जानाति किं पश्यति कथं सर्वज्ञ इति वा भवति ॥13॥
शब्दार्थ-अण्णायं-अज्ञात को; पासंतो-देखने वाला; य-और, अद्दिष्ट-अदृष्ट को; वियाणतो जानता हुआ; अरहा-अर्हन् (केवली); किं-क्या; जागइ-जानता (है) (और); किं-क्याः पासइ-देखता (है); (वह) कह-किस प्रकार सब्यण्णु-सर्वज्ञ त्ति--यह वा-अथवा; होइ-होता है।
अज्ञात का द्रष्टा व अदृष्ट का ज्ञाता सर्वन कैसे? : भावार्थ-यदि केवली अर्हन्त अज्ञात पदार्थ के द्रष्टा और अदृष्ट पदार्थ के झाता हैं, तो इस स्थिति में उनमें से एक समय में सर्वदर्शित्व तथा सर्वज्ञत्न की सिद्धि नहीं हो सकती। क्योंकि उनमें विद्यमान दर्शन, ज्ञान, अपने-अपने विषय को देखने,
1. ब अदिळं। 2. द अरहो।