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सम्मइसुन
सदभावाऽसदभावे देशो देशश्चोभयथा यस्य। तदस्ति नास्त्यवक्तव्यं च द्रव्यं विकल्पवशात ॥40॥
शब्दार्थ-जस्स-जिसका; देसो-देश (एक भाग); सम्भावासब्भावे-सद्भाव-असद्भाय (सदसतरूप से) में; य-और; देसी भाग); उमगानों स्मो यात जाता है); तं-वह; दवियं-द्रव्य; विययवसा-विकल्पवश से; अत्थि णस्यि च अबत्तब्ब-अस्ति-नास्ति और अवक्तव्य (बनता है) है।
(7) अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य : मावार्थ-यह सातवाँ भंग है। इस भंग में क्रमशः द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिकनय की प्रधानता और युगपत् (एक साथ) इन दोनों नयों की प्रधानता होने से द्रव्य कचित् अस्तिरूप, कथंचित् नास्तिरूप और कचित् अयक्तव्यरूप कहा जाता है। इस प्रकार जिस द्व्य का एक भाग अस्ति-नास्तिरूप से कहा जाता है और एक भाग दोनों रूपों से कहा जाता है, वह द्रव्य विकल्प-भेद के कारण 'अस्ति-नास्ति अवक्तव्य' कहा जाता है।
मूल में भंग का कारण नित्यता तथा अनित्यता का विचार करना है। द्रव्यार्थिकनय से द्रव्य सत् एवं नित्य है, यह प्रथम मंग है। पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से असत् एवं अनित्य है, यह द्वितीय भंग है। दोनों नयों की प्रधानता से तृतीय भंग एवं दोनों नयों की युगपत् प्रधानता से चतुर्थ भंग बनता है। शेष तीनों भंग 'अवक्तव्य' के साथ क्रमशः प्रथम, द्वितीय और तृतीय भंग के मिश्रण से बनते हैं। इस प्रकार एक ही द्रव्य का प्रतिपादन सप्तमंगों के रूप में किया जाता है।
एवं सत्तवियप्पो वयणपहो होइ अत्थपज्जाए। वंजणपज्जाए पुण' सवियप्पो णिबियप्पो य ॥41।।
एवं सप्तविकल्पो वचनपथो भवत्यर्थपर्याये।
व्यंजनपर्याये पुनः सविकल्पो निर्विकल्पश्च ।।1।। शब्दार्थ-एवं-इस प्रकार अत्यपज्जाए-अर्थपर्याय में सत्तवियप्पो-सात विकल्प (रूप); वयणपहो-वचनमार्ग; होइ-होता है; पुण-फिर; बंजणपज्जाए-व्यंजनपर्याय में; सवियप्पो-सविकल्प; य-और णिबियप्पो-निर्विकल्प (रूप वचन मार्ग होता
अर्थपर्याय तथा व्यंजनपर्याय में मंग : भावार्थ-द्रव्यगत अर्थपर्याय वस्तुतः शब्दों के द्वारा प्रतिपादित नहीं हो सकती। जो
1.
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