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सम्मइसुतं
से अतीत (वचनों की पहुंच से बाहर: द्रव्वं-द्रव्य (कही जाने वाली वस्तु) , अवत्तच्च-अवक्तव्य; पडइ-पड़ती है (कही जाती है)।
सात मंग : (1, 2, 3) सतू, असत् और अवक्तव्य : भावार्थ-किसी भी वस्तु के एक धर्म को लेकर भाव या अभाव रूप से जो वास्तविक और अबास्तविक कथन किया जाता है, उसे भंग कहते हैं। जब किसी द्रव्य का परद्रव्य, परक्षेत्र, पर काल और परभाव से विचार किया जाता है, तब वह कथंचित 'असत्' होता है। किन्तु जब स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव से विचार किया जाता है, तब कथंचित 'सत्' होता है। इस तरह से एक ही द्रव्य में 'असत्' और 'सत्' उभय रूप बन जाते हैं। परन्तु जब स्वयादिकों और परद्रव्यादिकों दोनों को एक साथ प्रधानता के साथ विरक्षित किया जाता है, तो एक समय में दोनो धर्मो का एक साथ प्रतिपादन न होने से वह 'अवक्तव्य' कोटि में आता है। सात भंगों में से एक कोदि में अवक्तव्य भी है!
अह देसो सब्मावे देसो' असब्भावपज्जदे णियओ। तं दवियमस्थि णस्थि य आएसविसेसियं जम्हा ।। 37 ।। अथ देशः सद्भात्रे देशोऽसद्भावपर्यये नियतः ।
सद्रव्यमस्ति नास्ति च आदेशविशषित यस्मात् ।। 37 ।। शब्दार्थ-अह-और (जिसका); देसो-भाग (एक देश); सब्भावे-सद्भाव में (सार रूप में); (तथा) देसी-एक देश; असम्भावपज्जर्व-असतुभाय (रूप) पर्याय में; णियओ-नियत (है); तं-बह; दवियं-द्रव्य; अस्थि-अस्ति; स्वि-नास्ति (रूप है); जम्हा-क्योंकि आएसविसेसियं-भेद (विवक्षा की विशेषता (है)।
(4) अस्तिनास्ति : भावार्थ-जिस द्रव्य का एक भाग सद्भाब पर्याय में नियत है और दूसरा भाग असदुभाव पर्याय में नियत है उसे 'अस्तिनास्ति' रूप कहा जाता है। क्योकि यह कथन की विवक्षा से विशेषता लिए हुए रहता है। अस्तिनास्ति रूप इस भंग में किसी भी धर्म को मुख्य या गौण नहीं किया जाता है, किन्तु दोनों धर्मों को एक साथ मुख्यता से प्ररूपित कर उनका क्रमशः कथन दिया जाता है। इसे चतुर्थ भंग कहा गया है।
सब्भावे आइट्ठो देसो देसो य उभयहा जस्स। तं अस्थि अवत्तवं च होइ दवियं वियप्पवसा ॥38॥
1. प्रदेसा सम्भार ।