________________
58
सम्मइसतं
(दुर्नय) हैं। परस्पर सामान्य तथा विशेष की सापेक्षता होने पर ही सतू का लक्षण बन सकता है। यदि पर्यायार्थिक नय अपने विषय का प्रतिपादन कर यह पानने लगे कि उसने पूर्णतः सत्य का प्रतिपादन कर दिया है और इसी प्रकार द्रव्यापिक नय भी अपने विषय के प्रतिपादन को पूर्ण तथ्य समझे, तो दोनों की स्वतन्त्र मान्यता मिथ्यादृष्टि रूप है।
ण य तइओ अस्थि णयो ण य सम्मत्तं ण तेस पडिपण्ण'। जेण दुवे एगंता' विभज्जमाणा अणेगतो ॥14॥
M
POUND
न च ततीयोऽस्ति नयो न च सम्यक्त्वं न तयोः प्रतिपूर्णम् ।
येन द्वावेकान्तौ विभज्यमानावनेकान्तौ ॥14॥ शब्दार्थ-य-और; तइओ-तीसरा; णयो-नय; ण-नहीं; अस्थि-है; य-और तेस-उन मैं (उन दोनों नयों में) पडिपण्ण-परिपूर्ण; सम्मत्तं-सम्यकच (यथार्थपना); णयं-नय ण-नहीं (है); (ऐसा); ण-नहीं है); जेण-जिस से; दुबे-दोनों; एंगता-एकान्त (नय) विभज्जमाणा--भजमान (परस्पर सापेक्ष कथन करने पर); अणेगंतो-अनेकान्त (कहे जाते हैं)।
नयों की यथार्थता : भावार्थ:-यदि सामान्य-विशेष से युक्त द्रव्य को युगपत् ग्रहण करने वाला कोई नय होता, तो तीसरा नय मान लिया जाता! परन्तु ऐसा कोई तीसरा नय नहीं है। मूल में दो ही नय हैं। इन दोनों से काम चल जाता है। अपने-अपने विषय को पूर्ण रूप से कहने पर भी ये तब तक एकान्त रहते हैं, जब तक परस्पर सापेक्ष रूप से अपने विषय का कथन नहीं करते। सापेक्ष कथन होने पर इन में अनेकान्त होता है और ये यथार्थ कहे जाते हैं। इस प्रकार ये दोनों नय यथार्थ हैं।
जह एए तह अण्णे पत्तेयं दुग्णया णया सव्वे । होति हु मूलणयाणं पण्णवणे वावडा ते वि |॥15॥ यधेती तथाऽन्ये प्रत्येक दुर्नया नयाः सर्वे।
भवन्ति खलु मूलनवानां प्रज्ञापने व्यापृतास्तेऽपि ॥15॥ शब्दार्थ-जह-जिस तरह; एए-ये (दोनों नय निरपेक्ष होने पर) दुण्णया-दुर्नय
1. ब" पहिपन्न। 2. ब' एगते। 4. ब 'सच्चे के स्थान पन्ने 1. ब" "पन्नवणण्याबहा'।