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सम्मासुतं
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हेउविसओवणीयं जह वयणिज्जे परो णियत्तेइ। जइ तं तहा पुरिल्लो दाइंतो केण जिवंतो 158॥ हेतुविषयोपनीतं यथा उचनीयं परो निवर्तयति। यदि तत्तथा पौरस्त्यो दशयिता केनाजेष्यत ||58ii
शब्दार्थ-हेजविसओयणीयं-हेतु (के) विषय (रूप में) प्रस्तुत; वयणिज्ज-वचन योग्य (विषय को); जह-जिस प्रकार; परो-प्रतिवादी; णियत्तेइ-नियारण करता है; जइ-यदि पुरिल्लो-पूर्ववर्ती (वादी ने); तं-उस (साध्य को); तहा-उसी प्रकार (हेतुपूर्वक); दाइंता दिखलाया (हो तो) केण-किसके द्वारा; जिब्बतो-जीता (जा सकता है?
हेतुपूर्वक अनेकान्त दृष्टि का खण्डन नहीं : भावार्थ-यदि वादी पहले से ही अनेकान्त-दृष्टि को रख कर हेतु पूर्वक साध्य का उपन्यास करता है, तो प्रतिवादी में ऐसी शक्ति नहीं है जो उसे पराजित कर सके। दूसरे शब्दों में प्रयोग-काल में साध्य के अविनाभावी हेतु के प्रयोग से साध्य की सिद्धि करने वाले वादी को कोई जीत नहीं सकता है। क्योंकि उसके वचन अनेकान्त रूपी कवच से सुरक्षित होते हैं। फिर, साध्य बादी को ही इष्ट होता है; प्रतिबादी को नहीं | अतः हेतुपूर्वक अनेकान्त दृष्टि ही अजेय है। उसके सिवाय अन्य दृष्टि का खण्डन हो सकता है। परन्तु अनेकान्त की सिद्धि अनेकान्त से होने से उसका खण्डन नहीं हो सकता है। कहा है--
एगताअसब्मूयं सब्भूयमणिच्छियं च वयमाणो । लोइयपरिच्छियाणं वयणिज्जपहे पडई वादी' ॥59।। एकान्ताऽसद्भूतं सद्भूतमनिश्चितं चावदन्। लौकिकपरीक्षकाणां वचनीयपथं पतति (प्राप्नोति) वादी ॥59||
शब्दार्थ-एगंताअसब्मूर्य-एकान्त असद्भूत (का अथवा); सम्भूयमणिच्छियं-सदभूत (होने पर भी) अनिश्चित; ययमाणो-बोलने वाला; वादी-बादी; लोइयपरिच्छियाणं लौकिक (तथा) परीक्षकों के वयणिज्जपहे-वचन-पथ में (को) पडइ-प्राप्त होता है। (निन्दा का पात्र बन जाता है)।
1. ब" द विसेसंति। १. दहेजविसयोयणीय। 5. वायंतो केण जिप्पतो। 4. ध एयंता सत्भूयं।