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________________ 140 सम्मइसुतं य हेतवादपक्षे हेतक आगमे चागमिकः । सः स्वसमयप्रज्ञापकः सिद्धान्तविराधकोऽन्यः ॥45।। शब्दार्थ-जो-जो (पुरुष); हेउवायपक्खम्मि-हेतुवाद (के) पक्ष में हेउओ-हेतु (का); आगमे य-और आगम में; आगमिओ-आगम (का प्रयोग करता है); सो-वह; ससमयपण्णवओ-स्व समय का प्ररूपक (है); अण्णो-अन्य (इससे भिन्न); सिद्धतविराहओ-सिद्धान्त (का) विराधक (है)। स्वसमय-प्ररूपक : भावार्थ-सर्वज्ञ की सत्ता स्थापित करना, मुक्ति को उपलब्ध जीव का संसार में लौट कर पुनः न आना, इत्यादि कथन सुनिश्चित व असंभव-बाधक रूप हेतु होने से हेतुवाद का ही विषय है। जो विषय हेतुबाद का है, उसे हेतुवाद से जानने वाला ही स्वसमय का प्ररूपक कहा गया है। इसी प्रकार जो विषय आगमवाद का है, उसे भी श्रद्धापूर्वक आगम से जानने वाला स्वसमयप्ररूपक है। किन्तु जो आगमवाद में हेतुवाद का और हेतुवाद में आगमवाद का प्रतिपादन करता है, वह व्यक्ति अनेकान्त सिद्धान्त की विराधना करने वाला है। परिसुद्धो णयवाओ आगममेंत्तत्थसाहओ होइ'! सो चेव दुण्णिगिण्णो दौण्णि वि पक्खे विधम्मेई 146॥ परिशुद्धो नयवाद आगममात्रार्थसाधको भवति । स चैव दुर्निगीर्णो द्वावपि पक्षौ विधर्मयति ॥46॥ शब्दार्थ-आगममेतत्थ-आगम मात्र अर्थ (केवल श्रुत कथित विषय का) साहओ साधक; परिसुद्धो-परिशुद्ध; णयवाओ-नयवाद; होइ-होता (है); सो-वहः चेव-ही और (जब); दुण्णिगिण्णो-दुनिक्षिप्त (परस्पर निरपेक्ष रखा जाता है, तब); दोण्णि वि-दोनों ही; पक्खे-पक्ष में (का); विधम्मेइ-विनाशक होता (है)। शुद्ध नयवाद : भावार्थ-जो नय अपने विरोधी नय की मान्यता का खण्डन न कर आगम के अनुसार वस्तु-तत्त्व का प्रतिपादन करता है, वह शुद्ध नयवाद कहा जाता है। यद्यपि यह नयवाद वस्तु में विद्यमान अनन्त धर्मों का प्रतिपादक नहीं है, किन्तु किसी एक 1. ब" मणिओ। 2. ब" दुन्नयिणो। ब"विसम्म वि।
SR No.090409
Book TitleSammaisuttam
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages131
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size2 MB
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