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सम्मइसुतं
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गुणनिवर्तितसंज्ञैवं दहनादयोऽपि द्रष्टव्याः । यतु यथा प्रतिषिद्धं द्रव्यमद्रव्यं तथा भवति ॥30॥
शब्दार्थ-एवं-इस प्रकार; गुणणिव्वत्तियसण्णा-गुण (से) सिद्ध संज्ञा (वाले); दहणादओ-दहन आदि (पदार्थ) वि-भी; दट्टया-देखे जाने चाहिए; जंतु-जी तो; जहा--जिस प्रकार, पडिसिद्धं-निषिद्ध (अपना कार्य नहीं करता है); दध्वं-द्रव्य (वह); तहा-वैसे (ही); अदर्व-पदार्थ नहीं; होइ-होता है।
और अनेकान्त-पद्धति : भावार्थ-इसी प्रकार शब्द की गति रूप वाले इन 4: सार्थको जान चाहिए। वे अपने नाम के अनुसार यदि कार्य करते हैं तो पदार्थ हैं, अन्यथा नहीं हैं। क्योकि द्रव्य भाव से निषिद्ध होने पर अमावात्मक होता है। अतः जो पदार्थ अपना काम नहीं करता है, वह पदार्थ नहीं है। प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने गुण के अनुसार कार्य करता है। द्रव्य कहते ही उसे हैं जो गुणों की ओर ढलता है। द्रव्य का कार्य पर्याय रूप होता है। पर्याय सद्भायात्मक होती है, बिना भाव के नहीं होती। बिना गुण की पर्याय ही अभादात्मक हो सकती है। लेकिन ऐसी कोई पर्याय नहीं होती है। अतः पर्याय का जन्म द्रव्य से होता है
और वह द्रव्य में ही विलीन हो जाती है-इस अपेक्षा से तथा एक समय की 'सत्' होने से अभावात्मक कही जाती है।
कुंभो ण जीवदवियं जीवो वि ण होइ कुंभदवियं ति। तम्हा दो चि अदवियं अण्णोण्णविसेसिया होंति ॥३॥ कुम्भो न जीवद्रव्यं जीवोऽपि न भवति कुम्भद्रव्यमिति।
तस्माद् द्वावप्यद्रव्यमन्योन्यविशेषितौ भवतः ||3|| शब्दार्थ-कुभी-घड़ा; ण-नहीं (है); जीवदवियं-जीय द्रव्य; जीयो वि-जीव भी; कुंभदवियं-घड़ा द्रव्यः ण-नहीं; होई-होता है; तम्हा-इससे; दो वि-दोनों ही अण्णोणविसेसिया-एक-दूसरे (के गुणों से) भिन्न (विशिष्ट); अदवियं-अव्य; होति-होते हैं। एक दृष्टान्त : मावार्थ-जीव द्रव्य के गुणों की अपेक्षा से घड़ा जीव द्रव्य रूप नहीं है। इसी प्रकार जीव भी घड़े के गुणों की अपेक्षा से घट रूप नहीं है। अतएब ये परस्पर एक-दूसरे के गुणों की अपेक्षा अद्रव्य हैं। किन्तु अनेकान्त की दृष्टि से सामान्यतः दोनों ही
1. ' अविनं।