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संग्रहवासिया ग्रन्थ में कहीं नहीं दिया है । टीकाकार ने अन्तिम छन्द में कवीश्वर गौतम स्वामी कथयति ऐसा वचन कहकर ग्रन्थकार का जाम धोतित किया है । कवि गौतम का कौन-सा काल है ? मह जात नहीं होता, इतका वितरण | हमनें जिनेन्द्र सिद्धान्त कोष. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास अथवा भगवान महावीर और उनकी आचार्य परम्परा (भाग १ से ४) में पाने का प्रयत्न किया किन्तु असमर्थ रहे।
ग्रन्थकाल भी अधूरा है - सावणमासम्मिकया गाथाबंधेण विरइयं सुणहं।
कहियं समुच्चयत्थं पयडिज्जं तं च सुहणोहं ।। टीका :- कवीश्वर गौतम स्वामी कथयति - मया इयं सम्बोध पञ्चासिका गाथाबन्धेन भव्यजीवानां प्रतिबोधनार्थं श्रावण सुदी व्दितीया दिने कृता । समुच्चयत्थं कोऽर्थः ? बहवो अर्था भवन्ति परन्तु मया संक्षेपार्थे कथिता। च पुनः स्वात्मोत्पन्न सुखबोध प्राप्त्यर्थ मया कृतम्।
अर्थात् :- श्रावण सुदी व्दितीया को ग्रन्थ पूर्ण हुआ किन्तु संवत् आदि का वर्णन ग्रन्थ में न होने से अन्य कब लिखा गया कहना असंभव है।
इसीतरह टीकाकार कौन हैं ? टीका कब लिखी गई ? टीका लिखने का स्थल कौन-सा है ? यह सब जालें अनिर्णित हैं। फिर भी टीका सरल.सुबोध व विषय का स्पष्टीकरण करने वाली है, यह मात्र निश्चित् ।
वर्ण्य विषय डान्धकार ने मंगलाचरण के माध्यम से पंच परमेष्ठी को नमस्कार करते हुए सबसे पहले एक गाथासूत्र कहा।
अपनी अल्पज्ञता को प्रकट करते हुए द्वितीय गाथासूत्र का अवतार हुआ।
गाथा ३ से ४६ तक की गाथाओं के माध्यम से शन्थकार ने शिष्य को सम्बोधित किया है ।