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गाथा ४७.४८ में ग्रन्थकार ने जिनेन्द्रप्रभ से याचना की है कि भव - -भव में आप मेरे स्वामी हो, संयमी गुरु की प्राप्ति मुझे हो, साधी जनों का प्रेम मुझो मिले, मेरा समाधिमरण हो लथा चारों गतियों का दुःख दूर हो ।
गाथा ४१ में ग्रन्थकार लिखते हैं कि वे ही मनुष्य धन्य हैं, धनवान हैं तथा जीवित हैं जिनका सम्यक्त्व दृढ़ हैं तथा जिनशासन में जिनकी निरन्तर भक्ति है। __ गाथा ५0 में ग्रन्थ का पठन व श्रवण का फल प्रकट किया है।
गाथा ७१ में ग्रन्थ का समारोप करते हुए लघुता प्रदर्शन व समय का | वर्णन किया है। इस तरह ५१ गाथाओं में इस ग्रन्थ का विषय फैला हुआ है।
ग्रन्थ की दृष्टान्तशैली इस छोटे से ग्रज्थ में ग्रन्थकार ने दृष्टान्तशैली का बहुत अधिक प्रयोग | | किया है।
यथा :दीवम्हि करे गहिए पडिहसि अवम्हि गस्थि संदेहो। मणुयतणं च पावि विजह पम्मे ण आयरं कुणह॥७॥
इस माथा के अनुसार नर जन्म पाकर भी जो धर्म में आदर नहीं करता उसकी तुलना हाथ में दीपक लेकर कुएँ में गिरने वाले जैसी है।
जह वयणाणं वि अच्छी आयसि दिणमणिवज्जहा सारं। तह सयलजंतु मजझे माणुससम्म पुरो सारं ॥८॥
मुख में नेत्र सारभूत है, आकाश में सूर्य सारभूत है वैसे जीवों में मनुष्य सारभूत है।
मुख्य जोवण अम्मु करि जरहण धिपई जाम। शेर बहिबाहु चलइ जिमि पुणर्ड ण सभइ ताम ॥१४॥
बुढ़ापे की तुलना बूढे बैल से की है। गजकण्णधवललच्छी जीवं तह अम्भपटलसारिच्छं।