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Matce संजीत यासिया-REACH भावार्थ :
कवि ने जिनेन्द्रप्रभु के समक्ष तीन बातों की याचना की है । यथा(1) भव-भव में जिनेन्द्र भगवान ही मेरे स्वामी हो। (२) संयमसहित गुरु मुझे भव-भव में मिलें। | (1) धर्मानुराग के कारण अर्थात् निःस्वार्थ साधर्मीस्नेही मुझे भव-भव में। मिलते रहें। । ये तीन सदगुण ही मनुष्य को इस भव में तथा परभव में आदर के और | सौख्य के पात्र बनाते हैं।
जिनेन्द्रप्रार्थना जिणणाह लोयपुज्जिय मग्गमि थोवं पि जइ पसण्णोसि। ___ अंते समाहिमरणं चउगइदुक्खं णिवारेहि ॥४८॥ अन्वयार्थ :(जिणणाह) जिननाथ (लोयपुज्जिय)लोकपूज्य (थोवं पि) कुछ (मग्गमि) मार्ग में (जह) यदि (पस एणी सि) आप प्रसन्न हो (अंते) अन्त में (समाहिमरणं) समाधिमरण दो (तथा) (चउगइदुक्खं) चतुति के दुःखों का (णिवारेहि) निवारण करो संस्कृत टीका :--
कविः प्रार्थनां करोति, हे जिननाथ ! हे त्रिदशेन्द्रादीनां पूज्य ! यदि मयास्मिन् | लोके त्वं पूजितोऽसि ई किश्चित् स्तोकमहं याचे प्रार्थयामि । किं ग्रार्थयामि ? अन्तकालेऽवसानकाले स्वात्मभावेन संन्यासेन रत्नत्रयगुणैः सह समाधिना मरणं भवतु, पुनः चतुर्गतीनां दुःखं दूरी कुरा, अमरपदं ददातु । टीकार्थ :
कवि प्रार्थना करते हैं कि हे जिननाच । त्रिदशेन्द्रपूज्य । यदि मेरे से इस लोक में तेरी पूजा हुई है, तक मैं थोड़ी याचजा करता हूँ। शंका -क्या प्रार्थना करता हूँ? समाधान :-अनन्तकाल में स्वात्मभावना से युक्त रत्नत्रय गुणसहित समाधि