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संबोर संचासिया कर चुका हूँ। मैं सारे जगत को हेख सकता हूँ किन्तु मुझे दुनियाँ का कोई व्यक्ति नहीं देख सकता।
एक दरिद्रता ही करोडों गुणों को नष्ट कर देती है। यह दरिद्रता पूर्वोपार्जित रापकर्म से प्राप्त होती है। अताट सुखेच्छु भत्र्य को पूर्ण तन्मयला से धर्म करना चाहिये।
पुनः धर्म का लौकिक फल धम्मेण णरो सुहगो सुदंसणो सयललोयसुहजणणो। लोएण पुज्जणिज्जो पणासणो सयलदुक्खाणां ॥३८॥ अन्वयार्थ :(पम्मेण) धर्म टे (णरो) मानव (सुहगो) सुभग (सुदंसणी) सुन्दर (सयललोय) सब लोक में (सुहजणणों) शुभोत्पादक (लोएण) लोगों से (पुज्जणिज्जो) पूज्य (सयल दुक्खाणां) सकल दुःखों का (पणासणो) नाशक होता है। संस्कृत टीका :
हे शिष्य ! पुनः जिनधर्मेण किं-किं भवति ? पुनः जिनधर्मेण कृत्वा | समस्तत्रिलोकमध्ये यत्र-यत्र गच्छति तत्र-तत्र रूपेणातिमनोज्ञः दृश्यते, कामदेवो | भवति, पुनः जिनधर्मेण कृत्वा स्वाय परेषां चापि सुखमुत्पादयति, पुनः जिनधर्मेण कृत्वा त्रिलोकस्य लोकेरयं जीवः पूज्यते, पुनः जिनधर्मेण कृत्वायं जीव इहामुत्र व सकलस्य दुःखस्य विनाशको भवति, पुनः जिनधर्मेण कृत्वायं जीवोऽक्षयमन्तरहितं च सुखं प्राप्नोति। टीकार्थ :
हे शिष्य ! जिनधर्म से क्या-क्या होता है ? जिनधर्म के कारण जीव त्रैलोक्य में जहाँ-जहाँ जाता है. वहाँ-वहाँ रुप से मनोज होता है अर्थात् कामदेव होता है । पुनः उस धर्म से स्व और पर दोनों के लिये सुखोत्पादन होता है । जिनधर्म के करने के कारण यह जीव लोक-परलोक में समस्त दुःखों का विनाशक होता है तथा यह जीव धर्म के प्रसाद से ही अक्षय -अनन्त सुरख को प्राप्त करता है।