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संत्रोह पंचासिया - सम्पादकीय
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अप्पा सो परमप्पा आत्मा ही परमात्मा है। किन्तु वह निज ऐश्वर्य | से विमुख हो जाने के कारण दर-दर का भिखारी बन बैठा है। उसकी शक्ति | मष्ट नहीं हुई , अपितु सुप्त हुई है । उन्हीं सोई हुई शक्तियों को अनुप्राणित करने का काम स्वाध्याय के द्वारा किया जाता है । इसीलिये स्वाध्यायः परमं तपः यह उक्ति लोक में विख्यात हुई है । स्वाध्याय का पंचम विकल्प है धर्मोपदेश।
जिन्होंने वाचना,प्रच्छना,अनुप्रेक्षा आम्नायरूप चतुर्विध रवाध्याय की आराधना की है, जिन्हें स्व-पर समय का हाट , जि . - - प्रमाण और निक्षेपादिक का गूळ अवबोध प्राप्त है, जो चतुरानुयोग में पारंगत हैं, द्रव्य - क्षेत्र-काल और भाव का जिन्हें अनुगम हैं वे ही धमोपदेश के अधिकारी हैं । इन गुणों से विशिष्ट गुरु के द्वारा प्रदत्त सम्बोधन ही संसारोच्छेदक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में कारणभूत ऐसे देशनालब्धि का निमित्त बनता है।
भगवान महावीर के जीव को सिंह की पर्याय में अमितंजय व अमितगुण नामक मुनियों ने धर्मोपदेश सुनाया था।
आचार्य भगवन्त श्री गुणभद्र जी ने उत्तरपुराण के चौहत्तरवें पर्व में लिखा है कि :
हे भव्य मृगराज! तूने पहले त्रिपृष्ठ के भव में पाँचों इन्द्रियों के श्रेष्ठ विषयों का अनुभव किया है। तूने कोमल शैयातल पर मनोभिलषित स्त्रियों के साथ चिरकाल तक मनचाहा सुख्ख स्वच्छन्दतापूर्वक भोगा है। रसला इन्द्रिय को तृप्त करने वाले, सब रसों से परिपूर्ण तथा अमृत रसायज के साथ स्पर्धा करने वाले दिव्य भोजन का उपभोग तूने किया है। उसी त्रिपृष्ठ के भव में तूजे सुगन्धित धूप के अनुलेपनों से. मालाओं से, चूर्णो से तथा अन्य सुवासरों से चिरकाल तक अपनी नाक के दोनों पुट संतुष्ट किये हैं। इस भाव से युक्त, विविध कारणों से संगत, स्त्रियों के द्वारा किया हुआ अनेक प्रकार का नृत्य भी देखा है । इसीप्रकार जिसके शुद्ध तथा देशज भेद हैं और जो चेतन, अचेतन