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Nare संखोह संचासिया
इसतरह मात्र ७ दिनों में टीका पूर्ण हुई।
संस्कृत भाषा का ज्ञान तो मुझे है नहीं, अतः मेरा यह प्रयास मात्र ढीठता है। विद्वज्जनों के लिए मैं उपहास पात्र हूँ.इसमें क्या संशय है ?
ज तो शब्दकोष का भण्डार मेरे पास था और न अनुवाद का पूर्वदर्ती अनुभव । अतएव ढुस्साहस ही हुआ है, मेरे द्वारा । - अजेक स्थानों पर त्रुटियाँ साभव है। अर्थ में कमी रहना, अर्थ स्पष्ट न होना, व्याकरण की शुटियाँ रहना आदि अनेक कमियाँ हस शुन्ध में हुई। होगी.अतएव विद्वानों से निवेदन हैं कि वे इसे शुद्ध कर पढ़ें !
संस्कृत का अल्पाध्ययन मुझे कराने वाले परमपूज्य मम क्षुल्लकैलक दीक्षागुरु,विद्यागुरु,आचार्यकल्प १०८ श्री हेमसागर जी महाराज के अजुग्रह को मैं इस समय भुला नहीं पा रहा हूँ। प्रेम से, कठोरता से, सभी तरह से अनुशासन कर उन्होंने भाषा का हाल मुरे कराया था। उन पूज्य गुरुदेव के चरणों में बारंबार नमोऽस्तु ।।
मेरे माननीय प्रेरणास्तम्भ मुनि दीक्षागुरु आचार्य १०८ श्री सन्मतिसागर जी महाराज को मेरा नमोऽस्तु ।
अनुवाद के कागज मेरे से लेकर हठात उसे ग्रन्थ का आकार देने में कारणभूत आर्यिकाहय (आर्यिका सुविधिमती, सुयोगमती) को अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग की प्राप्ति का आशीर्वाद । उन्हीं के प्रयास से यह पुस्तक इतनी सुन्दररूप में प्रकाशित हो रही है।
द्रव्यदाता, प्रेरक, अनुमोदक, इनकी बहुत बड़ी नामावली है । उन सबको मेरा आशीर्वाद ।
प्रबुद्ध पाठकवर्ग इससे हितमार्ग को प्राप्त करें, बस यही भावना |
आकिञ्चनश्रमण मुनिसुविधिसागर