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________________ Part सबौहरूचासिया अर्थात् : सुई के अग्रभाग से छेदे जाने से जो दुःख इस जीव को होता है, उससे || आठ गुना अधिक दुःरम गर्भ में होता है। ऐसा जानकर गर्भवास के दुःखों को नरक के सदृश्य लानो । फिर बाल्यावस्था में भी नरक के दुःखों के समाज दुःख को तुमने भोगा है, उन दुःखों को सभी लोग जानते हैं। भावार्थ : गर्भस्थ अवस्था में तथा जन्म के समय में जीवों को अतीव वेदना सहन करनी पड़ती है। माता के उदर में अधोमुख रहना, माता के व्दारा खाये | गये अन्न के रस का सेवन करना और अंगोपांगों को संकुचित करके रहना जैसे अनेक प्रकार के दुःख गर्भ में सहने पड़ते हैं। उन दोनों अवस्थाओं के दुःखों का वर्णन करते समय पण्डितप्रवर श्री | दौलतराम जी खिले हैं दि .. जननी उदर वस्यो नवमास, अंग संकुचतँ पाई त्रास। निकसत जे दुख पाये घोर, तिनको कहत न आवै ओर ।। (छहढ़ाला :- १/१२) अर्थात् :- माता के गर्भ में यह जीव नौ माह तक रहा । वहाँ उसे अंगों को संकुचन करके रहना पड़ता है। उस कारण से जीव ने बहुत दुःख प्राप्त किये। गर्भ से बाहर निकलते समय इस जीव ने जो महान दुःख प्राप्त किये | हैं, उनका वर्णन नहीं किया जा सकता है। नरक में जितना दुःख इस जीव को होता है उतना दुःख यह जीव गर्भावस्था में भोगता है। बाल्यावस्था के दःख तो सर्वप्रत्यक्ष हैं। कार्याकार्य के ज्ञान से हीन होकर जो कुकृत्य इस जीव ने किये हैं, उनका दर्शन उग्थवा स्मरण भी मनुष्य के लिए वैराग्य का कारण बन जाता है । आचार्य श्री अमितगति जी लिखते हैं कि बाले यदि कृतं कोऽपि कृत्यं संस्मरति स्वयम् । तदात्मन्यपि निर्वेदं यातन्यत्र न किं पुनः॥ (मरणकण्डिका -१०६५)
SR No.090408
Book TitleSamboha Panchasiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGautam Kavi
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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