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इसपरम
Hॉसौपचासिया को मृत्यु से बचाने में सक्षम नहीं है।
इस परम सत्य को जानकर प्रत्येक जीव का कर्तव्य है कि वह जिनधर्म की शरण को प्राप्त कर लेवें ताकि आत्मस्वरूप को उपलब्ध करके मृत्यु पर सदा-सदा के लिए विजय प्राप्त किया जा सके।
नरक में अपार दुःख हैं जइ संसमरसि अयाणय णरये जं जं च असुहमणुभवियं ।
अछउ उता अणंतिय भत्तं पि ण रुच्चए तुच्छं ॥ २२॥ अन्वयार्थ :(अयाणय) हे अक्षाजी ! (जइ) यदि (णरये) लरक में (जं जं च) जो जो (अणतिय) अनन्त (असुहमणुभवियं) अशुभ अनुभव (अछउ) हुआ है। उसका तू (संसमरसि) स्मरण करेगा (उता) वैसा (स्मरण पर हो तो तुझे)। (तुच्छं) थोड़ा-सा (भत्तं पि) भोजन भी (ण) नहीं (रुच्चए) भायेगा। संस्कृत टीका :
रे अज्ञानिन् ! हे बहिरात्मन् जीव ! यदि त्वं नरकादिदुःखस्वरूपं विचारयसि तहि त्वया नरकरय दुःखमनन्तवाराननुभूतं भुक्तम्। पुनः यदि तेषां नारकाणामशुभं दुःखं त्वया स्वचित्ते रस्सियते तर्हि भवते लवमा भोजनं न रोचते। टीकार्थ :
रे अडानी ! हे बहिरात्मज् जीव ! यदि तू जरकादि दुःखों के स्वरूप का विचार करेगा तो अनन्त बार तूने जरकों में दुःरतों का अनुभव किया है । उन नरकों के अशुभ ढुःखों का अपने मन में स्मरण करेगा तो तुझो कणमात्र भी भोजन रुचिकर नहीं होगा । भावार्थ :
नरक में अनन्त दःख हैं उनका वर्णन कर पाना छद्मस्थजीवों के लिए संभव नहीं है । उन दुःखों को इस जीव ने अपजे मिथ्यात्वादि विभावों के कारण अनन्तबार भोगा है।। (नरक के दुःखों की अधिक जानकारी हेतु एक बार अवश्य पढ़िये मुनि श्री के द्वारा लिखित कैद में फंसी है आत्मा नामक लघु कृति - संपादक)