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लेकिन प्रस्तुत ग्रन्थ ग्यणसार की शैली, आगम और अध्यात्म का अनूटा समन्वय हैं। गृहस्थ एवं साधु की चर्या का वर्णन करने वाली अनोखी कृति हैं । क्योंकि गृहस्थ एवं साधु एक दूसरे के पूरक हैं। एक सिक्के के दो पहलू की भाँति ।
एक दिन, एक बहिनश्री ने स्वाध्याय सभा में हमसे एक प्रश्न पुछन । महाराजश्री, आज-कल साधुओं में बहुत शिथिलता आ गई है। अतः हम कैसे समझें कि ये सच्चे साधु हैं ? हमने बहिनी से कहा, हमारे पास एक फार्मूला है सच्चे साधु ढूंढ़ने का, पहचानने का। बहिनश्री बहुत खुश हुईं। हमने कहा, "जिस दिन आपकी आमा सच्चा श्रावक बन जायेगी, उसी दिन आपको सच्चे साधु भी मिल जायेंगे ।" यह सुनकर बहिनश्री निरुत्तर हो गईं।
कहने का तात्पर्य है कि आदर्श तक पहुँचने के लिए अपनी-अपनी आचार संहिताओं का गहन अध्ययन के साथ ही यथाशक्ति आचरण भी जरूरी है। इसी दृष्टिकोण से भगवन्त श्री कुन्दकुन्द आचार्य देव जी द्वारा विरचित श्री रयणसार जी ग्रंथ का अनुवाद वात्सल्य रत्नाकर आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज की सुशिष्या आर्यिका श्री स्याद्वादमती माता जी ने आचार्यश्री के पट्टशिष्य मर्यादाशिष्योत्तम श्री भरतसागर जी महाराज की पावन प्रेरणा से किया है जिससे आज के नवयुवकयुवतियाँ भी इसे पढ़कर समझ सकें ।
आर्यिका श्री ने ग्रन्थ के अनुवाद में पाठभेद आदि से संशोधित कर कृति को कृतार्थ किया है। इस कृति को हमें अपने जीवन में उतार कर स्वयं को भी कृतार्थ करना है ।
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इस ग्रंथ के अनुवाद एवं सम्पादन कार्य में आचार्य श्री भरतसागर जी महाराज का मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन मिला इसके लिए हम चिरऋणी हैं। इस विषय में हम और अधिक क्या कहें ? इस कार्य में जितनी अच्छाइयाँ हैं वह सब अनुवादिका जी की हैं एवं जो त्रुटियाँ हैं वे सब हमारी हैं अतः विद्वजन हमें क्षमा करेंगे । प्रस्तुत कार्य में ब्र० बहिन प्रभा जी पाटनी को भी भुलाया नहीं जा सकता। क्योंकि ग्रंथ की साज-सज्जा के अनुकूल सामग्री जुटाने का उनका अथक परिश्रम भी सराहनीयप्रशंसनीय है । किमधिकम् विज्ञेषु
सम्मेदाचल विजयादशमी
११-१०-९७
मुनि श्री अमितसागर