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रयणसार
१२९ अबधार्थ:- जिदि) जिनेन्द्र कथित ( इणं गंथं ) इस रयणसार ग्रंथ को जो ( ण हु मण्णइ ) न तो मानता हैं (ण हु सुणेइ ) न सुनता हैं ( ण हु पढइ ) न पढ़ता है ( ण हु चिंतइ ) न चिंतन करता हैं ( ण हु भावइ ) न भावना करता है ( सो चेव ) वह मानव/जीव ( कुदिट्ठी ) मिथ्यादृष्टि ( हवेइ ) होता है।
अर्थ-जिनेन्द्र देव कथित इस रयणसार ग्रंथ को जो न तो शब्दों से मानता है, न हृदय से सुनता है. न भावों में पढ़ता है, न बुद्धि से चिंतन करता है, न मन में भावना करता हैं वह जीव मिथ्यावृष्टि होता हैं।
ग्रन्थ के सम्मान से लाभ इदि सज्जण पुज्जं रयणसार गंथं णिरालसो णिच्चं । जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ सासयं ठाणं ।।१६७।। ___अन्वयार्थ ( इदि ) इस प्रकार ( सज्जण पुज्जं ) सज्जनों के द्वारा पूज्य ( रयणसार गंथं ) इस रयणसार ग्रंथ को ( णिचं ) सदा ( णिरालसो ) आलस्य रहित होकर ( पढइ ) पढ़ता है ( सुणइ ) सनता है ( भावइ ) भावना करता है । सो ) वह ( सासयं ठाणं) शाश्वत स्थान मोक्ष पद को ( पावइ ) पाता हैं।
अर्थ—जो भव्यात्मा इस प्रकार सज्जनों के द्वारा पूज्य इस "रयणसार'' ग्रन्थ को जो सदा आलस्यरहित होकर भावों से पढ़ता है, हृदय से सुनता है, मन से भावना करता है वह शाश्वत स्थान मुक्ति पद को प्राप्त करता है।
इदि रयणसार गंथो समत्तो