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रयणसार
गाय, जो समस्त इच्छित पदार्थों को देती है, कल्पवृक्ष--एक प्रकार का वृक्ष जो याचना करने पर इच्छित पदार्थों को प्रदान करता है, चिन्तामणि रत्न-एक प्रकार का रत्न जो चिंतित पदार्थ को तत्काल देता है. और रस्सायन-स्वर्ण आदि बनाने में सहायक पदार्थ को प्राप्त कर संसार के उत्तम सुरखों को प्राप्त करता है। उसी प्रकार सम्यक्त्वरूपी रत्न को प्राप्त करने वाला जीव क्रमश: भुक्ति और मुक्ति के उत्तमोत्तम सुखों को भोगता है ऐसा जानना चाहिये ।
ग्रन्थ का प्रयोजन सम्म णाणं वेरग्ग-तवो भावं णिरीह-वित्ति-चारित्तं । गुण-सील-सहाव तह उप्पज्जइ रयणसार-मिणं ।।१६५।। __ अन्वयार्थ ( इणं रयणसारं ) यह रयणसार ग्रंथ ( सम्म-णाणंवेरग्ग-तवोभावं ) सम्यग्दर्शन, ज्ञान, वैराग्य, तपोभाव ( णिरीह-वित्ति ) निरीहवृत्ति ( चारित्तं ) चारित्र ( तह ) तथा ( गुणसील-सहावं ) गुणशील और आत्मस्वभाव को ( उप्पज्जइ ) उत्पन्न करता है।
अर्थ—यह रयणसार सम्यग्दर्शन, ज्ञान, वैराग्य, तपोभाव, निरीह, वृत्ति, चारित्र तथा गुण-शील और आत्म स्वभाव को उत्पन्न करता है ।
यह रयणसार ग्रन्थ सम्यग्दर्शन रत्न की प्राप्ति का एक अमूल्य खजाना हैं । ज्ञान व वैराग्य की उत्पत्ति के लिए मणिमय दीप है। तपोभाव की उत्पत्ति में एक प्रेरक निमित्त है । तथा निरीहवृत्ति, चारित्र-गुण-शील और आत्म स्वभाव की उत्पत्ति में अमर कल्पवृक्ष व चिन्तामणि रत्न है । भव्यात्माओं को रत्नत्रय निधि की प्राप्त्यर्थ इस लघु-काय सारगर्भित ग्रंथ का स्वाध्याय बार-बार करना चाहिये। इसका मनन-चिंतन व इसकी भावना पुनः पुनः कर अध्यात्म की गंगा में डुबकी लगाकर आत्म स्वरूप की प्राप्ति में प्रयत्नशील होना चाहिये।
ग्रंथ की अवमानना से अलाभ गंथ-मिणं जिणदिटुं, ण हुमण्णइ ण हुसुणेइ ण हु पढइ । ण हु चिंतइ ण हु भावइ, सो चेव हवेइ कुदिट्ठी ।।१६६।।