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सिरि कुंदकुंदाइरिय विरइयं
रयणसार
अह मंगलायरणं णमिऊण वड्डमाणं, परमप्पाणं जिणं तिसुद्धेण । वोच्छामि रयणसार, सायार-णयार धम्मीणं ।।१।। __ अन्वयार्थ ( परमप्पाणं) परमात्मा ( वड्डमाणं ) वर्धमान ( जिणं ) जिनको ( तिसुद्धेण ) तीनों शुद्धिपूर्वक ( णमिऊण ) नमस्कार करके ( सायार-णयार ) सागार-अनगार ( धम्मीणं ) धर्मयुक्त ( स्यणसारं ) रयणसार/रत्नसार [ ग्रन्थ ] को ( वोच्छामि ) कहूँगा |
__ अर्थ- मैं (कुन्दकुन्द) परमात्मा वर्तमान शासनाधिपति वर्धमान तीर्थकर जिनेन्द्र को मन-वचन-काय की त्रिशुद्धिपूर्वक नमस्कार करके सागार/ गृहस्थ और अनगार! मुनि धर्म का व्याख्यान करने वाले रयणसार ग्रन्थ को कहूँगा। ग्रन्थ की रचना करता हूँ ।
___ सम्यग्दृष्टि कौन ? पुव्वं जिणेहि भणियं, जहद्वियं गणहरेहि वित्थरियं । पुव्वाइरिय-क्कमजं, तं बोल्लइ जो हु सट्ठिी ।।२।।
अन्वयार्थ-( जो ) जो ( पुव्वं ) पूर्वकाल में ( जिणेहि ) जिनदेव के द्वारा ( भणियं ) कहे गये ( गणहरेहि ) गणधरों के द्वारा ( वित्थरियं ) विस्तृत किये गये ( पुव्वा इरियक्क्रमजं ) पूर्वाचार्यो के क्रम से प्राप्त ( जहट्ठियं ) ज्यों का त्यों वास्तविक सत्य ( तं ) उसको ही ( बोल्लइ ) बोलता हैं कहता हैं ( हु ) निश्चय से/वस्तुतः [ वह ] ( सद्दिट्ठी ) सम्यग्दृष्टि है ।
यहाँ वोच्छामि चद में आचार्य का अभिप्राय है "मैं इस ग्रंथ मा तक्ता मात्र है. कर्ता नहीं ।