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________________ पुया . -२० रत्नमाला रात दा5. - 91 (पद्मनंन्दि पंचविंशतिका ६/१२|| अर्थ : नरक सात ही है। उन्होंने मानों अपनी समृद्धि के लिए मनुष्यों को आकर्षित करनेवाले | इस एक एक व्यसन को नियुक्त किया है। | व्यसन विभीषिका पूर्ण हैं। वे अविवेक को जन्म देते हैं। व्यसनों के कारण न केवल व्यक्ति अपितु नगर और देश भी विनाश के कगार पर पहुँच जाते हैं। व्यसनी व्यक्ति में मुख्यता से दो | दुर्गुण प्रकट हो जाते हैं 1 लापरवाही और २ अपराध प्रवृत्ति। उसे यह पता चल जाता है कि | व्यसनों से मेरा पतन अवश्य होना है, फिर भी वह आध्यात्मिक उनति, सामाजिक मर्यादा तथा स्वयं का स्वास्थ्य इन सब से लापरवाह हो जाता है। व्यसनों की मूर्ति के लिए जो आवश्यक सामग्री चाहिये, उसे जुटाने के लिए वह सबकुछ कर गुजरने को तैयार हो जाता है, इस से वह अकरणीय कार्यों में भी प्रवृत्त हो जाता है, अतः व्यसनी मनुष्य के द्वारा अपराध होना साहजिक ___व्यसनी व्यक्ति से किसी प्रकार के आदर्श आचरण की अपेक्षा करना. आकाशकुसुम,वन्ध्यापुत्र अथवा खर श्रंग की चाहना करने के समान निरर्थक है। उस में प्रमत्तता का वर्धन होता है और वह प्रमत्तता उसे दुष्ट प्रवृत्तियों की ओर बढ़ाती है। उस के समस्त संस्कार क्षणार्द में ही | विनष्ट हो जाते हैं। । व्यसन मनुष्य के जीवन को विकट बना देते हैं। व्यसन मनुष्य को दुर्गति के निकट ले जाते हैं। व्यसन मनुष्य को ऐसी उलझनों में पर देने है कि किम जों साफ का नाम ही नहीं लेता। व्यसन ऐसी ढलान के समान है, कि जहाँ हमारे जीवन की गाड़ी एक बार चल पड़े तो स्वयमेव इतनी गतिमान् हो जाती है कि तलहटी में ले जाकर पहुंच जाती हैं। एक बार लुढ़क गये तो लुढ़क गये-फिर सम्हलने का अवसर ही नहीं मिल पाता। नदी की भंवर में फंसा || | प्राणी जैसे विवश होकर नदी के तल तक पहुँच जाता है, उसी प्रकार व्यसनों के भँवर में फंसा हुआ मनुष्य नरक निगोद में पहुँच जाता है। व्यसन का सेवन मनुष्य को भ्रष्ट कर देता है, आदमी अपनी सहज लज्जा खो बैठता है, चाहे | अनचाहे वह निन्दित कर्म करने लगता है। व्यसन उसे उस का शील भुलवा देते हैं। जैनाचार्यों ने व्यसन के सात भेद किये हैं। आ, पूज्यपाद सप्त व्यसनों का नाम निर्देश करते हुए लिखते हैं कि - द्यूतं मांसं सुरा वेश्या, परदाराभिलोभनम् । . मृगया सह चौर्येण, स्युःसप्त व्यसनानि वै।। (पूज्यपाद श्रावकाचार ३५० अर्थात : जुआ खेलना, मांस भक्षण, सुरापान, वेश्या सेवन, परद्वारा लोभन. शिकार और चोरी ये सप्त व्यसन हैं। ___ (इन सातों का विस्तृत वर्णन पढ़े. मुनिश्री द्वारा की गई पूज्यपाद श्रावकाचार की हिन्दी टीका | | में। - सम्पादक. __ सप्त व्यसन दुर्गति के मार्ग, पापों के वर्धक, रत्नत्रय के नाशक और दुःखदायक है। अतः | बुद्धिमान पुरुषों को उनका त्याग करना चाहिये। __ग्रंथकार कहते हैं कि उनका सेवन करना तो दूर की बात रही, मात्र आदर करना भी | नरकगति का कारण है। सुविधि शान पत्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद. - - - - - - - - - - - - - - -
SR No.090399
Book TitleRatnamala
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
AuthorSuvidhimati Mata, Suyogmati Mata
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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