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________________ त छ, - 90 गुसरा का. . २00 रत्नमाला पन त, - 90 व्यसन निन्दा व्यसनानि प्रवज्यानि नरेण सुधियाऽन्वहम् । सेवितान्यावृतानि स्युर्मरकायाश्रयेऽपि च।। ४८, अन्वयार्थ : सुधिया बुद्धिमान् नरेण मनुष्य के द्वारा व्यसनानि व्यसनों को प्रवानि छोड जाना चाहिये अन्वहम् प्रतिदिन (इस को) सेवितानि सेवन करने से और आदतानि आदर करने से नरकाय नरक को भी अपि आश्रये प्राप्त स्युः होता है। अर्थ : बुद्धिमान् मनुष्य व्यसनों को छोड़ें। व्यसनों का सेवन करने से तथा उन का आदर करने से नरक की प्राप्ति होती है। भावार्थ : व्यसन शब्द वि उपसर्ग पूर्वक अस् धातु से बना हुआ है। अस् धातु का अर्थ है फैंकना। जो बुरे कार्य में विशेष रूप से फैंके, वे व्यसन हैं। यही परिभाषा पं. आशाधर जी को इष्ट है। जगतीव्र कषाय कर्मशमनस्कारापितै र्दुष्कृत चैतन्यं तिरयत्त मस्तरदपि द्यूतादि यच्छेयसः। पुंसो व्यस्यति तद्विदो व्यसनमित्याख्यान्त्यतस्तदद्वतः कुर्वीतापि रसादि सिध्दिपरतां तत्सोदरीं दूरगाम् ।। (सागार धर्मामृत-३/१९} अर्थ : यतः निरन्तर उदय में आनेवाले तीव्र क्रोधादिक से कठोर हुए आत्मा के परिणाम के निमित्त से उत्पन्न होने वाले पापों के द्वारा मिथ्यात्व को उल्लंघन करने वाले, चैतन्य को आच्छादित करने वाले जुआ आदि सातों ही व्यसन पुरुषों को कल्याणमार्ग से भ्रष्ट कर देते हैं, अतः विद्वान् लोग उन जुआ आदि को व्यसन कहते हैं, इसलिए जुआ आदि सप्त व्यसनों का त्याग करनेवाला श्रावक जुआ आदि व्यसनों की बहिन रसादिकों के सिद्ध करने की तत्परता को भी दूर करे।। शंका : पाप और व्यसन में क्या अन्तर है? __ समाधान : प्रमाद के वशीभूत होकर किसी कार्य का करना, पाप है तथा उस बुरे कार्य को बार-बार करना, व्यसन है। व्यसनों के विषय में आ. पद्मनन्दि उत्प्रेक्षा करते हैं कि - सप्तव नरकाणि स्युस्तैरेकैकं निरूपितम् | आकर्षसन्नृणामेतद् व्यसनं स्वसमृदये।। सुविधि ज्ञान चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद
SR No.090399
Book TitleRatnamala
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
AuthorSuvidhimati Mata, Suyogmati Mata
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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