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रत्ममाला
वीर मन्दना सर्वशं सर्ववागीशं वीरं मारमदापहम् । प्रणमामि महामोह शान्तये मुक्तताप्तये।। १.
अन्वयार्थ.
सर्वज्ञम् सर्ववागीशम् मारमदम्
अपहम्
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वीरम् महामोह शान्तये मुक्तता
सर्वज्ञ सर्ववागीश कामदेव का मद नाश करनेवाले वीर को महा मोह की शान्ति के लिए तथा मुक्ति की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूँ।
आप्तये
प्रणमामि
अर्थ :- जो सर्वज्ञ हैं, वाणी के ईश्वर हैं, कामदेव के अहंकार का नाश करनेवाले हैं, ऐसे वीर जिने को मैं मोहनीय कर्म को नाण करने के लिा और युक्ति को प्राप्त करने के लिए नमस्कार करता हूँ। भावार्थ :- वीर शब्द अनेक महार्थों का घोतक है। यथाआ. ज्ञानमती माताजी ने लिखा है कि - वि विशिष्टा ई लक्ष्मीः अन्तरङ्गानन्त चतुष्टय विभूति बहिरङ्गसमशरणादिरूपा च सम्पत्तिः, तां राति ददातीति वीरः। अथवा विशिष्टेन इर्ते सकल पदार्थ समूहं प्रत्यक्षी करोतीति वीरः। यदा वीरयते शूरयते विक्रामति कर्मारातीन् विजयते इति वीरः श्रीवर्धमानः सन्मतिनाथोऽतिवीरा महति महावीर इति पञ्चाभिधानः प्रसिध्दः सिद्धार्थस्यात्मजः पश्चिम तीर्थकर इत्यर्थः। अथवा कटपयपुरस्थवर्णं नंदनव पञ्चाष्ट कल्पितैः क्रमशः। स्वरजनशून्यं संख्यामात्रीपरिमाक्षरं त्याज्यम्। इति सूत्रे नियमेन वकारेण चतुरङ्कोर शब्देन च इयङ्कस्तथा "अकानां वामतो गतिः" इति न्यायेन चतुर्विंशत्यकेन (२४) वृषभादिमहावीरपर्यन्त चतुर्विंशत्यकेन्न तीर्थंकराणामपि ग्रहणं भवति।"
(नियमसार-१३ अर्थ:- “वि विशिष्ट "ई" लक्ष्मी, अर्थात् अन्तरंग अनन्त चतुष्टय विभूति और बहिरंग समवसरण आदि संपत्ति, यही विशेष लक्ष्मी है। इसको जो देते हैं, वे वीर हैं। | अथवा जो विशेष रीति से "इर्ते" अर्थात् जानते हैं - सम्पूर्ण पदार्थों को प्रत्यक्ष करते हैं, || वे वीर हैं।
सुविधि शाम चलिरका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.