SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुष्पा . - २० रत्नमाला पा . - 61 | वैभव हाथी के कर्ण अथवा काक के चक्षु के समान अत्यन्त चंचल है। कब आये और || कब जाये? इस का कोई निश्चय नहीं है। पुण्य के फल से प्राप्त हुई विभूति को पुण्य कर के ही स्थिर रखा जाता सकता है। अतः गृहस्थ को सदैव यह प्रयत्न करना चाहिये कि वे अपने वैभव का सदुपयोग करें। वैभव की अस्थिरता और पात्र की दुर्लभता देखते हुए, वैयावृत्ति में मन को लगाना, सद्गृहस्थ का कर्तव्य है। वैयावृत्ति के १६ गुण बताते हुए आ. शिवार्य ने लिखा है कि - गुणपरिणामो सट्टा वच्छाल्लं भत्तिपत्तलंभो य। संधाणं तवपूया अनिच्छत्ती समाधी या। आणा संजमसाखिल्लदा य दाणं च अविदिगिंछा य। वेज्जावच्चस्स गुणा, पभावणा कज्जपुण्णाणि।। गवती आराधना- ३२४, ३१५) अर्थ : १-साधुनि के गुणन में परिणाम. २ श्रद्दान, ३-वात्सल्य, ४-भक्ति. ५ पात्रलाभ ६-संधान जो रत्नत्रयतें जोड़.७-तप, ८-पूजा, ९ धर्मतीर्थ की अव्युच्छित्ति, १०-समाधि, ११-तीर्थंकरनि की आज्ञा का धारना, १२-संयम की सहायता, १३-दान. १४-निर्विचिकित्सा, १५-भावना, १६-कार्यपूर्णता एते वैयावृत्य करने तैं गुणप्रकट होय हैं।।। वैयावृत्ति करने से धर्म प्रभावना होती है, संयमी की सुरक्षा होती है। अतः ग्रंथकार कहते हैं कि जो हर्षपूर्वक वैयावृत्ति करते हैं. वे मानों सुख के कारणभूत जैन धर्म का उदार ही कर रहे हो। सुविधि शाल वरिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.
SR No.090399
Book TitleRatnamala
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
AuthorSuvidhimati Mata, Suyogmati Mata
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy