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________________ [a ti. -२० रत्नमाला पप्त 73. -47 रत्नमाला गत 7 - ATE अभक्ष्य चर्मपात्रं गतं तोयं धृतं तैलं च वर्जयेत् । नवनीतं प्रसूनादि शाकं नाधात् कदाचन ।। २६. अन्वयार्थ : चर्मपात्रम् चर्मपात्र में ज्ञातव्य है कि रखा हुआ ___ श्रावकाचार संग्रह में चर्मपान की जगह चर्मपात्र जल छपा हुआ है तथा धृतं की जगह भी धृत छपा हुआ है। धृतम् च और तैलम् तेल वर्जयेत् त्यागना चाहिये। नवनीतम् मक्खन प्रसूनादि पुष्पादि शाकम् शाक कदाचन कभी गतम् तोयम् त अद्यात् खावें। अर्थ : चमडे के बर्तन में रखा हुआ जल, घी व तेल छोड़ देना चाहिये तथा कभी भी मक्खन, पुष्पादि शाक नहीं खानी चाहिए। भावार्थ : चमई में प्रति समय उसी जाति के असंख्यात् जीव उत्पन्न होते रहते हैं। चर्म पात्र में रखे हुए पदार्थों का भक्षण करने से मांसाहार का दोष लगता है। अतः सद्गृहस्थ को चर्म पात्रगत जल-तेल-घी आदि का त्याग करना चाहिये। __पण्डित प्रवर आशाधर जी ने चर्मपात्र स्थित वस्तुओं का भक्षण करने को मांस भक्षण का अतिचार बताया है। यथा - धर्मस्थमम्भस्नेहश्च हिंग्वसंहतच च। सर्व च भोज्यं व्यापमं दोषः स्यादामिषव्रते।। (सागर थर्मामृत ३/१२) अर्थ : चर्म पात्र में रखा हुआ जल, स्नेह (तेल व घी) चर्माच्छादित हींग और स्वादचलित सम्पूर्ण भोज्य पदार्थों का उपयोग करने से मांस त्याग व्रत में अतिचार होता है। लाटी संहिताकार का स्पष्ट निर्देश है कि चर्मभाण्डे तु निक्षिप्ताः धृत-तैल-जलादयः। त्याज्याः यतस्त्रसादीनां शरीरपिशिताश्रिताः।। {१/११) सूविधि ज्ञान चत्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.
SR No.090399
Book TitleRatnamala
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
AuthorSuvidhimati Mata, Suyogmati Mata
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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