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________________ - मनशक:- (CKETi. -२० रत्नमाला Jess., - 41 प्रासुक करने की विधि तिल-तण्डुल-तोयं च प्रासुकं भामरी गृहे! न पानाय मतं तस्मान्मुखशुचिर्न जायते।। २२. अन्वयार्थ : तिल तण्डुल तोयम् तिल और चावल (मिश्रित) जल भोजन गृह में प्रासुक है (उससे) मुखशुद्धि भ्रामरी गृहे प्रासुकम् मुखशुध्दिः नहीं जायते तस्मात् पानाय होती इसलिए (उसे) पीने के लिए (योग्य) नहीं माना है। मतम् अर्थ : तिल और चावल से मिश्रित जल भोजनालय में शुद्ध है किन्तु उस से मुखशुद्धि नहीं होती, अतएव उसे पीना योग्य नहीं है। भावार्थ : अनन्तर पूर्व श्लोक में जल को प्रासुक करने की विधि बताई गई थी। उस को सुनकर शिष्य प्रश्न करता है कि यदि रंग बदलने से पानी प्रासुक है तो तिल या चावल का पानी शुध्द माना जाना चाहिये। आचार्य भगवन्त समझाते हैं कि तिल या चावल मिश्रित जल भोजन बनाते समय शुट माना जाता है, परन्तु उस के पीने से मुखशुध्दि नहीं होती, अतः उस को पीने के योग्य नहीं माना है। सुविधि ज्ञाम चक्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.
SR No.090399
Book TitleRatnamala
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
AuthorSuvidhimati Mata, Suyogmati Mata
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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