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________________ पुत क्र. २० रत्नमाना पृष्ठ अजरामर पद का पात्र कौन? संवेगादि परः शान्तस्तत्त्वनिश्चयवान्नरः । जन्तुर्जन्मजरातीतं पदवीमवगाहते ।। १३. अन्वयार्थः संवेगादि घर. शान्तः तत्त्व-निश्वयवान् नरः जन्तु जन्म जरा अतीतम पदवीम् अवगाहते संवेगादि में रल हे शान्त है तत्त्वज्ञाता है (ऐसा ) मनुष्य प्राणी जन्म जरा से अतीत पदवी को 24 प्राप्त करता है। अर्थ: जो संवेगादि भावों में रत है, शान्त है, तत्व निश्चयीं है, ऐसा मनुष्य ाण जन्म- जरा आदि से रहित पदवी को प्राप्त करता है। - भावार्थ : सम्यादृष्टि में पाये जानेवाले तीन प्रमुख गुणों का विवेचन इस श्लोक में करते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि इन गुणों से संपन्न जीव मोक्ष प्राप्त करता है। संवेगादि परः सम्यग्दष्टि में मुख्यता से संवेगादि ८ गुण पाये जाते हैं। पं. मेघावी ने उन गुणों का नाम बताते हुए लिखा है किगुणास्तस्याष्ट संवेगो निर्वेदो निन्दनं तथा । गपशमभक्ती स वात्सल्यमनुकम्पनम् 11 (धर्मसंग्रह श्रावकाचार ५ / ७९) वात्सल्य और अनुकम्पा ये गुण குரு अर्थ : संवेग, निर्वेद, निन्दा गर्हा, उपशम, भक्ति, सम्यग्दृष्टि जीव में पाये जाते हैं। संवेग : इस गुण का लक्षण करते हुए पंचाध्यायीकार ने लिखा है कि - संवेगः परमोत्साहो धर्मे धर्मफले चितः । सधर्मेष्वनुरागो वा प्रीतिर्वा परमेष्ठिषु ।। पंचाध्यायी उत्तरार्ध ४३१) सुविधि ज्ञान चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद, अर्थ : आत्मा को धर्म और धर्म के फल में पूर्ण उत्साह होना, संवेग कहलाता है अथवा समान धर्मियों में अनुराग करना अथवा पाँचों परमेष्ठियों में प्रेम करना भी, संवेग कहलाता है। संसार के दुःखों से भयभीत रहना, संवेग है।
SR No.090399
Book TitleRatnamala
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
AuthorSuvidhimati Mata, Suyogmati Mata
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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