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________________ 15 F अन्वयार्थः २० स्वामी समन्तभद्र अहर्निशम स्वामी समन्तभद्र की स्तुति स्वामी समन्तभद्रो मेऽहर्निशं मानसेऽनघः | तिष्ठताज्जिनराजोद्यच्छासनाम्बुधिचन्द्रमाः ।। मे मानसे तिष्ठतात् रत्नमाला अनघः जिनराज अद्य शासन अम्बुधि पृष्ठत स्वामी समन्तभद्र सतत मेरे मन में विराजें (वे) निष्पाप हैं जिनराज हैं आज शासन रूपी सागर के 6 चन्द्रमाः चन्द्रमा है! अर्थ : निष्पाप, सम्यग्दृष्टियों के राजा, जिनशासन रूपी समुद्र के विकासक चन्द्रमा स्वामी समन्तभद्र मेरे मन में हमेशा विराजें । भावार्थ: जैन समाज में जितने भी प्रतिभाशाली, सध्दर्म प्रचारक, विद्वानों में सु पूज्य आचार्यवृन्द हुए हैं, उन में समन्तभद्र का नाम शीर्षस्थ है । स्वामी विशेषण समन्तभद्र में तिल में तैलवत् " घुल-मिल गया है। परवर्ती आचार्यों समन्तभद्र को स्मरण कर अनेक उपाधियों से अलंकृत किया है। अकलंक देव ने स्याद्वाद तीर्थ प्रभावक और सन्मार्ग परिपालक कहा, तो आचार्य विद्यानन्द ने समन्तभद्र को स्याद्वाद मार्गाग्रणी माना है, वादिराज उन्हें सर्वज्ञ प्रदर्शक मानते हैं, तो मलयागिरि उन्हें आद्य स्तुतिकार स्वीकार करते हैं। शिलालेखकों ने तो विशेषणों की झड़ी ही लगा दी। शास्त्र कर्त्ता, श्रुतकेवली सन्तानोन्नायक, समस्त विद्यानिधि, वीर शासन की सहस्त्र गुणी वृद्धि करनेवाला, कलिकाल गणधर तत्त्वज्ञान प्रसारक आदि अनेक विशेषण शिलालेखों में आपके लिए पाये जाते हैं। वादीगण समन्तभद्र के समक्ष " त्राहिमाम् " करते थे। इस बात को अभिव्यक्त करते समय अजितसेनाचार्य ने लिखा है कि, कुवादिनः स्वकान्तानां निकटे पुरुषोक्तयः । समन्तभद्र यत्यग्रे पाहि पाहीति सूक्तयः । । __( अलंकार-चिन्तामणि ४ / ३२५/ सुविधि ज्ञान चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.
SR No.090399
Book TitleRatnamala
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
AuthorSuvidhimati Mata, Suyogmati Mata
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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