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________________ अन्वयार्थ — २० पृ आचार्य सिध्दसेन की वन्दना सदावदात महिमा सदाध्यान परायणः । सिध्द्धसेनमुनिर्जीयाद् भट्टारक पदेश्वरः ॥ ३ रत्नमाला सदा अवदात महिमा सदा ध्यान परायणः अट्टारक पदेश्वर सिध्दसेन हमेशा निर्दोष महिमा (से युक्त) सदा ध्यान में परायण हैं ऐसे भट्टारक पद के स्वामी सिध्दसेन मुनि जयवन्त रहें। अर्थ :- जिनकी महिमा निर्दोष हैं, जो ध्यान-परायण हैं, जो भट्टारक पद के स्वामी हैं, वे मुनि सिध्दसेन जयवन्त रहें। भावार्थ :- भगवान् महावीर के निर्वाण गमन के पश्चात् केवली व श्रुतकेवलियों के द्वारा जैन धर्म की प्रभावना हुई । तदनन्तर धर्मध्वज को दिगदिगन्त में फहराने का काम अंग और अंगांशधारी आचार्यों ने किया। मुनिः जीयात् 5 उनके स्वर्ग-गमन के पश्चात् विशुध्द चरित्रवान्, जिनेन्द्रभक्त महाज्ञानी आचार्यों ने जैन धर्म के संरक्षण का प्रयत्न किया। दुर्भाग्यवशात् कलिकाल के प्रभाव से मिथ्यात्व का प्रभाव बढ रहा था, स्याद्वाद धर्म तो मूक दर्शकक्त हो गया और वस्तु तत्त्व के एक-एक अंश को पकड़कर यही सत्य है, ऐसा आग्रह करनेवाले मूढ जीव आपस में युध्द करने लगे। "अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग " इस कहावत को चरितार्थ करने वाले मूढ़ भव्य जीवों को ठगने लगे। स्व-पर विघातक जीवों के द्वारा सामान्य जनता पथभ्रष्ट होने लगी ऐसे विकट समय में करुणा कुबेर, स्याद्वाद विद्याधिपति, अकिंचन श्रमणेश्वर समक्ष आये और उन्होंने सटीक युक्तियों द्वारा मिथ्याधर्म को विनष्ट करने का प्रयत्न किया। उन परम कृपालु आचार्य भगवन्तों में एक थे-सिध्द्धसेन दिवाकर | दिवाकर विशेषण है, जो उनके ज्ञानातिशय को दर्शाता है। यद्यपि उनका प्रामाणिक परिचय उपलब्ध नहीं है. तथापि परवर्ती आचार्यों के द्वारा उनका आदरपूर्वक स्मरण करना, उनके महत्त्व को प्रकट करता है। कैसे हैं, वे सिध्दसेन दिवाकर ? १. निर्दोष महिमावान हैं। २. आर्त्तरौद्र दो ध्यानों से पूर्णतः अलग मोक्ष के कारणीभूत धर्मध्यान में निरन्तर लीन होने से ध्यान -परायण हैं। ३. भट्टारक हैं, अर्थात् जैनधर्म के परम प्रभावक हैं। ऐसे उस मुनिश्रेष्ठ को ग्रंथकार ने नमन किया है। सुविधि ब्रान चक्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.
SR No.090399
Book TitleRatnamala
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
AuthorSuvidhimati Mata, Suyogmati Mata
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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