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________________ पात. - २०- रत्नमाला mii. -13BDIEO अतिचार के लिए आगम में अनेक समानार्थक शब्द प्रयुक्त हुए हैं। आचार्य श्री | समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड प्रावकाचार में अतिचार के लिए व्यतिचार ६०), व्यतिक्रम(५६), व्यतीपाता५८), विक्षेपा६२), अत्याशा७३, व्यतीतया ८१), अत्यय(९६), अतिगमा १०५) व्यतिलंघन५१०१ इन शब्दों का प्रयोग किया है। आचार्य अकलंक देव अतिचार व अतिक्रम को एकार्थक मानते हैं। यथा अतिचारः अतिक्रम इत्यनर्थान्तरम् । (राजवार्तिक ७/२३(३) व्रतों की मर्यादा का उल्लंघन करना, अतिचार है। अतिचार लगने पर श्रावक को गुरु | चरणों में जाकर निन्दा गर्दा करते हुए दोषों की आलोचना कर प्रायश्चित्त की याचना करनी चाहिये। "प्रायश्चित्त" को परिभाषित करते हुए आ. श्रुतसागर लिखते हैं कि - प्रकृष्टो यः शुभावहो विधिर्यस्य साधु लोकस्य स प्रायः प्रकृष्टचारित्रः। प्रायस्य साधुलोकस्य चित्तं यस्मिन् कर्मणि तत प्रायश्चित्तमात्मशुध्दिकरं कर्म। अथवा प्रगतः प्रणष्टः अयः प्रायः अपराधस्तस्य चित्तं शुद्धिः प्रायश्चित्तं। कारस्करादित्वात्सकारागमः ___ "प्रायः इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनो भवेत् । तस्य शुद्धिकरं कर्म प्रायश्चित्तं तदुच्यते ।।" (तत्त्वार्थवृत्ति ९/२०) अर्थ : जो साधुलोक की उत्कृष्ट शुभावह विधि है, वा उत्कृष्ट चारित्र है वह प्राय कहलाता है। प्राय का (साधुलोक) का चित्त जिस कर्म में उपयुक्त हो, उस को प्रायश्चित्त कहते हैं, जो आत्मविशुद्धि की प्रक्रिया है। अथवा प्र-नष्ट हो गया है अयः अपराध जिस से, उस के चित्त की शुद्धि हो गई है, उस को प्रायश्चित्त कहते हैं। कारस्करादित्वात इस सूत्र से सकार का आगम हुआ है। अर्थात च व छ ने परे विसर्ग का 'श' हो जाता हैं। !! अथवा "प्रायः लोक को कहते हैं और उन लौकिक जनों के मन को चित्त कहते हैं तथा उन लौकिक जनों के चित्त की शुद्धि करनेवाली क्रिया को प्रायश्चित्त कहते हैं।" प्रायश्चित का फल बताते हुए आ. अकलंक देव लिखते हैं कि - प्रमाद दोष व्युदासः भावप्रसाद नैःशल्यम् अनवस्थावृत्तिः मर्यादाऽत्याग संयमदादाराधनादिसिद्धयर्थं पाश्चितम् ।। (राजवार्तिक ९/२२/१)| अर्थ : प्रमाददोष का व्युदास, भावप्रसाद, निःशल्यत्व, अव्यवस्था निवारण मर्यादा के पालन, संयम की दृढ़ता और आराधना की सिध्दि आदि के लिए प्रायश्चित्त के द्वारा विशुध्द होना, आवश्यक है। प्रायश्चित्त द्वारा व्रतशुद्धि होती है - अतः गुरु ने दिया हुआ प्रायश्चित्त पूर्ण करें ।। जातिगत मर्यादा का लोप भी नहीं करना चाहिये। - - - - - - - ... सुविधि ज्ञान चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद
SR No.090399
Book TitleRatnamala
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
AuthorSuvidhimati Mata, Suyogmati Mata
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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