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पुष्प क्र. २०
अन्वयार्थ :
व्रताद्येषु
अतिचारे
गुरुदितम्
प्रायश्चित्तम्
अतियत्नतः
आचरेत्
ਹ
जातिलोम्
न
कुर्यात्
प्रायश्चित्त ग्रहण अतिचारे व्रताद्येषु प्रायश्चित्तं गुरुदितम् । आचारेज्जाति लोपञ्च न कुर्यादतियत्नतः ।। ६४.
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रत्नगाला
व्रतादिक में अतिचार होने पर
गुरु द्वारा कधित प्रायश्चित्त को यत्नपूर्वक
पालन करें
और
जातिलोप
여
करें ।
पृष्ठ क्र. - 117
ज्ञातव्य है कि श्रावकाचार संग्रह में आचारेत् की जगह आचरेत् छपा है।
टीप्पणी: मेरे दृष्टि में श्लोकगत व्रताद्येषु की जगह व्रतादीषु होना चाहिये। विद्वत् - वर्ग विचार करें।
अर्थ : व्रतों में दूषण लगने पर श्रावक गुरु प्रदत्त प्रायश्चित्त को यत्नपूर्वक पालन करें और जातिलोप नहीं करें।
भावार्थ : प्रत्येक श्रावक सदैव प्रयत्न करता है कि उस के द्वारा गृहीत व्रतों में कोई दूषण न लगे। किन्तु प्रमाद वश या अज्ञानवश कोई न कोई भूल हो जाती है। सजग रहते हुए भी व्रतों में जो दूषण लगता है, उसे अतिचार कहते हैं यह व्रत का एकदेश भंग करता है।
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अतिचार शब्द की परिभाषा करते हुए चामुण्डराय लिखते हैं कि - कर्तव्यस्याकरणे वर्जनीयस्यावर्जने यत्पापं सोऽतिचारः ( चारित्रसार)
अर्थ: किसी करने योग्य कार्य को न करने पर अथवा त्याज्य पदार्थ का त्याग न करने पर जो पाप लगता है, उसे अतिचार कहते हैं।
आचार्य अमितगति ने विषयों में वर्तन को अतिचार कहा है। अतिचारं विषयेषु वर्तनम् (द्वात्रिंशतिका - ९ )
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