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अन्वयार्थ :
२०
सुव्रतानि
सु-संरक्षन्
नित्यादि
व्रत- रक्षा
सु-व्रतानि सु-संरक्षन् नित्यादि महमुध्दरेत् । सागारः पूज्यते देवैर्मान्यते च महात्मभिः ।। ६३.
महम्
उध्दरेत्
सागारः
देते.
पूज्यते
可
रत्नमाला
महात्मभिः
मान्यते
सद् व्रतों की रक्षा करते हुए नित्यादि
पूजा (को)
करें
(वह) श्रवक देवों के द्वारा
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पूजा जाता है
और
महात्माओं के द्वारा मान्य होता है।
अर्थ : व्रतों का अच्छी तरह संरक्षण करनेवाला गृहस्थ नित्यादि पूजायें करें, तो वह देवताओं के द्वारा पूज्य व महात्माओं के द्वारा मान्य होता है।
भावार्थ: चुरादिगणीय मह् धातु से घञ अर्थ में क प्रत्यय करने पर मह शब्द निष्पत्र होता है। इसका अर्थ है आराधना करना, अर्चना करना, सम्मान करना, स्वागत करना, उपहार देना, आदर करना आदि ।
श्लोक में प्रयुक्त महम् शब्द पूजा का समानार्थक शब्द है। पूजा के दो प्रकार हैं नित्यपूजा और नैमित्तिक पूजा ।
प्रतिदिन तीनों सन्ध्याओं में आगमानुकूल द्रव्यों के साथ गृह स्थजो जिनार्चना करता है, वह नित्यपूजा है।
पर्व दिनों में नित्य पूजा के साथ अन्य भी जो पूजाएं की जाती हैं, उन पूजाओं को नैमित्तिक पूजा कहते हैं।
अन्य प्रकार से पूजा के चार भेद हैं. नित्यमह, चतुर्मुख मह कल्पद्रुम और अष्टानिका ।
आदिपुराण में इनका स्वरूप निम्नांकित रूपेण पाया जाता है।
सुविधि ज्ञान चद्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.