SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ डा . -२० वा लोपिनः तेषाम् तप रत्नमाला पृप्त झा, - 114 मर्यादा पालन स्वकीयाः परकीया वा मर्यादा-लोपिनो नराः। न माननीयाः किं तेषां तपो वा श्रुतमेव च।। ६२. अन्वयार्थ स्वकीया स्वकीय अथवा परकीया परकीय मर्यादा मर्यादाओं का लोप करने वाले नराः मनुष्य माननीया माननीय नहीं होते जनके तपः अथवा श्रुतमेव च श्रुत से किम् क्या लाभ? टिप्पणी : मेरी दृष्टि में "तपसा वा श्रुतेन च" ऐसा पाठ होना चाहिये क्योंकि श्लोकगत पाठ अशुध्द प्रतीत होता है। भूत के साथ प्रयुक्त एवं शब्द तथा गाथागत च शब्द अर्थबोध कराने में असमर्थ है। कृपया - बहुश्रुतज्ञ इसका विचार करें। अर्थ : स्वकीय अथवा परकीय मर्यादा का लोप करनेवाला मनुष्य चाहे तपस्वी हो अथवा श्रुत ज्ञानी हो, वह मान्य नहीं है। __ भावार्थ : नीतिगत बन्धन अथवा शिष्टाचार के नियम को मर्यादा कहते हैं। मर्यादा लोक व्यवहार को सुचारु रूप से चलाती है। मर्यादा का लोप करनेवाला नर आत्मघाती तो है ही, साथ ही साथ धर्मघाती भी हैं। __प्रत्येक पद के साथ मर्यादा लगी हुई है। उन मर्यादाओं का लोप करनेवाला जीव चाहे द्वादशांग श्रुत का पाठी हो अथवा द्वादश तपों का अनुष्ठान करनेवाला तपस्वी हो - उन्हें जग में पूज्यता प्राप्त नहीं होती। नीतिकार का कथन है कि - यद्यपि सत्यं लोकविरुध्दं न करणीयं नाचरणीयम् । सत्य होते हुए भी लोक विरुद्ध कार्यों को नहीं करना चाहिये। वा - - - - - - - - - - सुविधि ज्ञाम चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.
SR No.090399
Book TitleRatnamala
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
AuthorSuvidhimati Mata, Suyogmati Mata
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy