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________________ गला २० अन्वयार्थ : येन कृतेन जीवस्य पुण्यबन्धः प्रजायते तत् सदा कर्त्तव्यम् अन्यत् अति कल्पितम् न कुर्यात रत्नमाला कर्त्तव्याकर्त्तव्य कृतेन येन जीवस्य पुण्यबन्धः प्रजायते । C तत्कत्तव्यं सदान्यच्य न कुर्यादति कल्पितम् ।। ६० जिसके करने से जीव को पुण्यबन्ध होता है वह सदा करना चाहिये अन्य अति-कल्पित कार्य नहीं करें। गुरु म लाटी संहिता में लिखा है कि अर्थ : जिसके करने से जीवों को पुण्य का बन्ध होता है, वह सदा करना चाहिये, जो कल्पित कार्य हैं, उन्हें नहीं करना चाहिये । - 108 ज्ञातव्य है कि श्रावकाचार संग्रह में सदान्यच्च जगह सदान्यत्र छपा हुआ है। भावार्थ: संसार में धर्म के नाम पर संक्लेशों का वर्धन करनेवाले अनेक कार्य प्रचलित हैं, जो मिथ्यात्व एवं असंयम को पुरस्कृत करते हैं। लोक मर्यादा का विरोध करनेवाले वे कार्य आत्म साधना की दृष्टि से भी अयोग्य हैं। अतएव आचार्य भगवन्त प्रेरणा देते हैं कि जिन कार्यों के करने से पुण्य व पाप का विनाश होता हो, ऐसे ही कार्य करने चाहिये । यतः पुण्यक्रियां साध्वी क्वापि नास्तीह निष्फला । थापात्रं यथायोग्यं स्वर्ग भोगादि सत्फला ।।४/३८. का विकास अर्थ : पुण्य प्राप्त करानेवाली व्रत रूप श्रेष्ठ क्रिया कभी निष्फल नहीं होती । व्रत पालक जीव जैसा पात्र हो, वह यथायोग्य स्वर्गादिक भोगों को प्राप्त करता है। सुविधि ज्ञान चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.
SR No.090399
Book TitleRatnamala
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
AuthorSuvidhimati Mata, Suyogmati Mata
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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