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आचार्यों ने बतलाया है कि तपस्वियों एवं गुरुओं के प्रति अपनी कायिक और वाचिक चेष्टाएँ केवल विनय एवं निरभिमानता को ही प्रकट करने वाली न हों अपितु उनके हृदय में किसी भी प्रकार से कष्मलता पैदा न होने पावे ।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
अपना कर्त्तव्य तो हित चाहने का होना चाहिए तथा मर्यादा का उल्लंघन न होने पावे, ऐसी प्रवृत्ति बनाये रखना ही कर्त्तव्यनिष्ठा है । जिस प्रकार राजामहाराजाओं के समक्ष स्वाभाविकरूप से विनम गंग नहीं करते उसी तरह गुरुजनों के प्रति भी अपनी प्राकृतिक विनयशीलता का भंग नहीं करना चाहिए। जो व्यवहार असभ्यता और औद्धत्य को प्रकट करने वाला होता है, लोक में उसे अनुचित ही नहीं अपितु निन्दनीय अपराध माना जाता है तब त्रिलोक पूज्य जिनमुद्राधारक साधु परमेष्ठी के प्रति किया गया औद्धत्यपूर्ण व्यवहार अपराध क्यों नहीं माना जायेगा ? अवश्य हो माना जायेगा । और उस अपराध की सजा प्रकृति उसको स्वयं देती है । तिरस्कार की भावना से जो अनुचित व्यवहार है, वह अपराध है । यों तो आचार्यश्री भी अपने शिष्य वर्ग को अपने अनुशासन में रखते हैं उन्हें प्रसंगानुसार प्रायश्चित्त भी देते हैं, कटु वचन भी कहते हैं, संघ से बहिष्कृत भी करते हैं; इस प्रकार का व्यवहार करते हुए भी आचार्य रंचमात्र भी अपने सम्यग्दर्शन को मलिन नहीं करते हैं क्योंकि उनका उद्देश्य शिष्यों का अपमान करने का नहीं है अपितु उनके हित करने के अभिप्राय से वे उन्हें प्रायश्चित्तादि देते हैं ।
इस तरह विचार करने पर ज्ञात होता है कि सम्यग्दर्शन का जो समय नामक दोष बतलाया है, वह केवल क्रिया को देखकर ही नहीं माना जा सकता, वह मूल उद्देश्य पर ही अधिक रूप से निर्भर है || २६ ॥
ननु कुलैश्वर्यादिसम्पन्नैः स्मयः कथं निषेद्धुं शक्यइत्याह-
यदि पापनिरोधोऽन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् । अथ पापास्वोऽस्त्यन्य सम्पदा किं प्रयोजनम् ॥२७॥
'पापं ज्ञानावरणाद्यशुभं कर्म निरुद्धयते येनासी' 'पापनिरोधो' रत्नत्रय सद्भावः स यद्यस्ति तदा 'अन्यसम्पदा' अन्यस्य कुलैश्वर्यादिः सम्पदा सम्पत्त्या कि प्रयोजनं ? न किमपि प्रयोजनं तन्निरोधेऽतोऽप्यधिकाया विशिष्टतरायास्तत्सम्पदः सद्भावभवबुद्धय