________________
परिमाणवत इन तीन को गुणव्रत बतलाया है । 'तत्त्वार्थसूत्रकार ने सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाणवत तथा अतिथिसंविभाग इन चार को शिक्षावत कहा है । परन्तु रत्नकरण्ड में देशावकासिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और बयावृत्य इन वार को शिक्षावत कहा है। कुन्दकुन्द स्वामी ने सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिसंविभाग और सल्लेखना इन चार को शिक्षाप्रत कहा है ।
आचार्यों ने विकलचारित्र को ग्यारह प्रतिमाओं में विभक्त किया है इसका वर्णन समन्तभद्राचार्य ने रत्नकरण्डश्रावकाचार के अन्तिम अध्याय में अच्छा किया है ।
इस ग्रन्थ के रचयिता समन्तभद्राचार्य हैं । दिगम्बराचार्यों में इनका महत्वपूर्ण स्थान है ये न्याय, व्याकरण, साहित्य, ज्योतिष, आयुर्वेद, मंत्र, तन्त्र आदि सभी विद्याओं के पारगामी थे वाद-विवाद में अत्यन्त पट थे । तिरूमकूड नरसीपुर के शिलालेख नं० १०५ में भी आपका उल्लेख इस प्रकार किया है
समन्तभद्रस्संस्तुत्यः कस्य न स्यान्मुनीश्वरः।
वाराणसीश्वरस्याने निजिता येन विद्विषः ।। अर्थात् वे समन्तभद्र मुनीश्वर किसके द्वारा संस्तुत्य नहीं हैं जिन्होंने वाराणसी नगरी के राजा के आगे जिनशासन से द्वेष रखने वाले प्रतिवादियों को पराजित किया था।
इस प्रकार समन्तभद्राचार्य के कृतित्व एवं व्यक्तित्व को बतलाने वाले अनेक उल्लेख पाये जाते हैं, इन्होंने सर्वत्र विहार कर जिनधर्म की महती धर्म प्रभावना की और सच्चे जिनधर्म की प्रतिष्ठा की ।
यद्यपि मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन का प्रथम स्थान है, उसकी उत्पत्ति, भेद, प्रभेदों का वर्णन अनेक आगम ग्रन्थों में पाया जाता है तथापि इस ग्रन्थ में समन्तभद्राचार्य ने जो रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है उसका वर्णन जनोपयोगी किया है। इस ग्रंथ के संस्कृत टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्य हैं।
इस ग्रन्थ की हिन्दी टीकादि कार्य करने की प्रेरणा पं० ज्योतिषाचार्य धर्मचन्द शास्त्री की रही मैंने अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार इस कृति का कार्य श्रावकोपयोगी हितकर जान किया, उसमें मेरा कुछ भी श्रम नहीं है यह कार्य तो स्व. महान सन्त