SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार [ ४५ से रोक ले । सम्यग्दर्शन की ऐसी अगाध महिमा है । सम्यग्दृष्टि आगम की आज्ञा का दृढ़ श्रद्धानी होता है वह उज्ज्वल आचरण को धारण करता है। तथा वैर विरोध से रहित होता हुआ समस्त जीवों में मैत्री भाव रखता है । अनीतिपूर्वक धनोपार्जन नहीं करता एवं अन्यायपूर्वक विषय भोगों का सेवन नहीं करता अर्थात् अभक्ष्य भक्षण परस्त्री सेवन, वेश्या सेवन नहीं करता, न दूसरों की निन्दा और अपनी प्रशंसा ही करता है, उसके भाव सदा ऐसे रहते हैं कि हमारे द्वारा जिनधर्म की निन्दा कदापि नहीं होनी चाहिए, नहीं तो हमारा जन्म और दोनों लोक बिगड़ जायेंगे । इसलिए सम्यग्दृष्टि अपना एवं अपने कुल धर्म का तथा सहधर्मी का किसी भी प्रकार से अपवाद न हो सदा ऐसे वर्तन करता है । सम्यग्दृष्टि के ४१ कर्मप्रकृतियों का बन्ध नहीं होता | वह अपने पद के अनुसार संसार के अथवा गृहस्थाश्रम के सभी कार्य किया करता है तथा उसके अनुसार उसके बंध भी हुआ करता है फिर भी उसकी दृष्टि अनन्त अविनश्वर, अनुपम परमानन्दरूप अपने शुद्ध चैतन्य को प्राप्त करने की रहा करती है। इसप्रकार वह मोक्षमार्गरूप गुणों का आराधक होने के कारण धर्मात्माओं के दोषों का निर्हरण करके उपगूहन और गुणों का संवर्धन करके उपवृहण तथा गुणों की अस्थिर अवस्था में उनका संरक्षण एवं संस्थित अवस्था में उचित सम्मानादि कर, तद्वत् अनुभूत गुणों को विधर्मियों में भी प्रकट करने का प्रयत्न करके वास्तविक हित या कल्याण का प्रकाशक हुआ करता है । इस प्रकार यहां पर सम्यग्दर्शन के निःशंकितादि आठ अंगों का स्वरूप बतलाया गया है । आगम में अन्य प्रकार से भी आठ अंगों का उल्लेख किया गया है यथा संबेओ निब्वे ओ हिदा गरुहाय उबस मो भक्ति । बच्छल्लं अणुकंपा गुणाहु सम्मत्त जुत्तस्स ।। अर्थात संवेग, निर्वेद, निन्दा, गाँ, उपशम, भक्ति, बात्सल्य और अनुकम्पा सम्यग्दृष्टि जीव के ये आठ गुण कहे गये हैं ।। __ जिस प्रकार राजा के सावधान होने पर राज्य के सभी अंग अनुकल कार्य करते हैं, एवं नीरोगता प्राप्त होने पर शरीर के आठों ही अंग पुष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार सम्यक्त्व के उत्पन्न हो जाने पर सम्यक्त्व के सभी अंग सावधान और पूष्ट होकर प्रतिपक्षी कर्मों को दूर करने के लिए प्रयत्नशील और आत्मशक्ति को पूर्ण विशुद्ध करने में समर्थ हो जाया करते हैं ।
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy