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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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और उनका उपभोग करता है जिससे नरक तिर्यंचगति में परिभ्रमण करना पड़ता है । इसलिए पाप का बीज हैं। ऐसे क्षणिक पराधीन सुखों में सम्यग्दष्टि कैसे श्रद्धान कर सकता है ? जब श्रद्धान नहीं तो वाञ्छा भी नहीं हो सकती । संसार में ऐसा कोई भी जीव नहीं है जिसके केवल पुण्य कर्मों का ही उदय पाया जाय । क्योंकि घातिया कर्म सब पापरूप ही हैं, उनके उदय से रहित कोई भी जीव नहीं है । इन चार घातिया कर्मों का सर्वथा अभाव हो जाने पर यह जीवात्मा उसी भव में परमात्मा सिद्धात्मा बन जाता है | किन्तु जब तक इन कर्मों का समूल क्षय नहीं हो जाता तब तक संसार में कोई भी ऐसा नहीं जो मात्र पुण्यफल का ही भोगी बना रहे, पुण्यकर्म का उदय पापकर्मों के उदय से मिश्रित ही रहता है। ऐसी अवस्था में शुद्ध आत्मसुख का अभिलाषी सम्यग्दष्टि विषमिश्रित लड्डू के समान पापोदयजनित दुःखों से सहित पुण्य जन्य इंद्रिय सुख को किस प्रकार पसन्द करेगा ? अर्थात् नहीं कर सकता । इसके सिवाय कदाचित् ऐसा भी होता है कि पुण्य के उदय से जीव को भोगोपभोग की यथेष्ट सामग्री प्राप्त होती है परन्तु अन्तरायकर्म के उदयवश उनको भोगने में असमर्थ ही रहता है, क्योंकि भोग्य सामग्री का प्राप्त होना और भोगने की शक्ति प्राप्त होना ये दोनों भिन्न-भिन्न विषय हैं । इसलिये अन्तरंग में पुण्य का उदय एवं अन्तराय का क्षयोपशम भिन्न-भिन्न कारणों की अपेक्षा रखता है । अतः सांसारिक सुख अन्तराय कर्म के उदय आदि के कारण दुःख मिश्रित विघ्नकारक ही रहता है । भेड़िये के सामने बँधा हुआ बकरी का बच्चा सुस्वादु एवं शरीरपोषक चारा खाकर भी हृष्ट-पुष्ट नहीं हो सकता है । इसी प्रकार अन्तराय सहित सुख सामग्री को पाकर कोई भी अन्तरात्मा प्राणी हर्ष एवं सन्तोष को प्राप्त नहीं होता। इसलिए भी सम्यग्दृष्टि को इस प्रकार के सुख में आस्था नहीं होती । इस प्रकार निःकांक्षित सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का साधन है ।
सम्प्रति निविचिकित्सागुणं सम्यग्दर्शनस्य प्ररूपयन्नाह - स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते । निर्जुगुप्सा गुण प्रीतिर्मता निर्विचिकित्सता ॥१३॥
'निविचिकित्सता मता' अभ्युपगता । कासी ? 'निर्जुगुप्सा' विचिकित्साभावः । क्व ? काये । किंविशिष्टे ? ' स्वभावतोऽशुची' स्वरूपेणापवित्रिते । इत्थंभूतेऽपिकाये 'रत्नत्रय पवित्रिते' रत्नत्रयेण पवित्रिते पूज्यतां नोते । कुतस्तथाभूते निर्जुगुप्सा