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________________ ३४० ] रत्नकरण्ड श्रावकाचार फलस्वरूप अनेक प्रकार के शारीरिक, मानसिक और आगन्तुक दुःख मिलते रहते हैं। इसलिये जीव का शत्रु पाप है । अन्य बाह्यद्रव्य तो निमित्तमात्र हैं । जो कोई भी अन्य जन दुर्वचन बोलते हैं, या धन, दौलत अथवा आजीविका का हरण करने वाले हैं, मारने वाले, वध-बन्धन में डालने वाले हैं, वे तो मात्र निमित्त हैं वास्तव में, तो मेरे अपने पाप कर्म के उदय से सभी प्रकार के दुःख प्राप्त होते हैं। किन्तु अज्ञ प्राणी आगम वचनों पर श्रद्धा नहीं करके बाह्यनिमित्तों में ही हर्ष-विषाद करता रहता है । ___ इसी प्रकार इस जीव का धर्म के समान कोई उपकारक बन्ध नहीं है । अज्ञानी प्राणी पुण्यकर्म के उदय के बिना अन्य को उपकारक मानता है । आगम ज्ञान से तो चारित्र की शोभा है, चारित्र से की शोना है, इसलिद श्रावकों को चाहिए कि वे ज्ञान की वृद्धि के लिए आगम का सतत अभ्यास करें। क्योंकि आगम का ज्ञाता ही ऐसा श्रद्धान कर सकता है कि जीवका शत्रु पाप है और बन्धु धर्म है। क्योंकि सुख-दुःख के साक्षात् कारण ये ही हैं, अतः बाह्य पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट कल्पना करना मेरा कर्तव्य नहीं है । ऐसा निश्चय करने से वह श्रेष्ठ ज्ञाता कहलाता है ।।२७।१४८।। इदानी शास्त्रार्थानुष्ठातुः फलं दर्शयन्नाह - येन स्वयं वीतकलंक विद्यादृष्टिक्रियारत्नकरण्ड भावं । नीतस्तमायाति पतीच्छ्येव सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु विष्टपेषु ॥२८॥ येन भव्येन स्वयं आत्मा स्वयंशब्दोऽत्रात्मवाचक: नीतः प्रापितः । कमित्याहबीतेत्यादि, विशेषेण इतो गतो नष्ट; कलंको दोषो यासां ताश्च ता विद्याष्टि क्रियाश्च ज्ञानदर्शनचारिश्राणि तासां करण्डभावं तं भव्यं आयाति आगच्छति । कासौ ? सर्वार्थसिद्धिः धर्मार्थकाममोक्षलक्षणार्थानां सिद्धिनिष्पत्तिः की । कयेवायाति ? पतीच्छयेव स्वयम्बर विधानेच्छयेव । क्व ? त्रिषु विष्टपेषु त्रिभुवनेषु ।।२८।। अब शास्त्र के अध्ययन का फल दिखलाते हुए कहते हैं (येन) जिसने ( स्वयं ) अपने आत्मा को ( बीतकलंक्रविद्यादृष्टिक्रियारत्नकरण्डभावम् ) निर्दोष ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप रत्नों के करण्डभाव-पिटारापने को (नीतः) प्राप्त कराया है, (तं) उसे (त्रिषुविष्टपेषु) तीनों लोकों में ( पतीच्छयेव ) पति की इच्छा से ही मानों ( सर्वार्थसिद्धिः ) धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप समस्त अर्थों की सिद्धि (आयाति) प्राप्त होती है।
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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