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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
से रहित करपात्र में ही भोजन करते हैं, ये मुनि के समान मयूरपिच्छी और कमण्डलु रखते हैं 1 ये सभी परस्पर 'इच्छामि' उच्चारण द्वारा विनय व्यवहार करते हैं। ये दोनों ही क्षुल्लक, ऐलक, रेल, मोटर आदि वाहन में बैठकर यात्रा नहीं करते हैं, पैदल विहार करते हैं । इसी प्रकार स्त्रीपर्याय में भी दो उत्कृष्ट पद हैं। एक आयिका पद दूसरा क्षुल्लिका का पद । क्षुल्लका सोलह हाथ की सफेद साड़ी और चद्दर रखती है इस प्रकार दो वस्त्र रखने की आज्ञा है। आर्यिका सोलह हाथ की एक साड़ी धारण करती है इसे उपचार से महाव्रती कहा है । क्षुल्लिका की सब क्रिया क्षुल्लक के समान ही है ।। २६ ।। १४७ ।।
तपः कुर्वन्नपि यो ह्यागमज्ञः सन्नेवं मन्यते तदा श्रेयोज्ञाता भवतीत्याहपापमरातिधर्मो बन्धर्जीवस्य चेति निश्चिन्वन ।। समयं यदि जानीते श्रेयोज्ञाता धवं भवति ॥२७॥
यदि समयं आगमं जानीते आगमज्ञो यदि भवति तदा ध्र वं निश्चयेन श्रेयोज्ञाता उत्कृष्टज्ञाता स भवति । किं कुर्वन् ? निश्चिन्वन् । कथमित्याह-पापमित्यादिपापमधर्मोऽरातिः शत्रुविस्यानेकापकारकत्वात् धर्मश्च बन्धुर्जीवस्यानेकोपकारकत्वादित्येवं निश्चिन्वन् ।
जो आगम का ज्ञाता तप करता हुआ ऐसा मानता है वही श्रेष्ठ ज्ञाता होता है, यह कहते हैं
(पापम् ) पाप ही (जोबस्य) जीवका ( अराति ) शत्रु है और ( धर्मः ) धर्म ही जीवका (बन्धुः) हितकारी है ( इति ) इस प्रकार ( निश्चिन्वन् ) निश्चय करता हुआ वह श्रावक ( यदि ) (समयं) आगम को (जानीते ) जानता है तो वह ( ध्रुवं ) निश्चय से ( श्रेयोज्ञाता ) श्रेष्ठज्ञाता अथवा कल्याण का ज्ञाता ( भवति ) होता है ।
टोकार्थ-यदि श्रावक आगम को जानने वाला है तो उसको यह निश्चय है कि पाप-अधर्म-मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र जीव का शत्रु है क्योंकि यह अनेक प्रकार से अपकार करने वाला है और धर्म-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्ररूप परिणति अनेक उपकार का कारण होने से जीव की बन्धु है । तब वह श्रेष्ठ ज्ञाता होता है ।
विशेषार्थ-संसार में इस जीव को दुःख देने वाला अन्य कोई शत्रु नहीं है, अपने ही विषय-कषायादिक विभाव भावों से पापकर्मों का उपार्जन होता है और उसके