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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
ते तत्राविकृतात्मानः सदा स्थिताः किं कुर्वन्तीत्याह
निःश्र यसमधिपन्नास्त्रैलोक्य शिखामणिश्रियं दधते । निfoकट्टिकालिकाच्छवि चामीकर भासुरात्मानः ॥१३॥
निःश्रेयसमधिपन्नाः प्राप्तास्ते दधते । धरन्ति । कां ? त्रैलोक्यशिखामणिश्रियं त्रैलोक्यस्य शिख । वूडाऽग्रनागस्तत्र मणिश्री चूडामणिश्रीः तां । किं विशिष्टाः सन्त इत्याह - निष्किट्ट ेत्यादि । कि च कालिका च ताभ्यां निष्क्रान्ता सा छविर्यस्य तच्चामीकरं च सुवर्णं तस्येव भासुरो निर्मलतया प्रकाशमान आत्मा स्वरूपं येषां ।। १३ ।। विकार से रहित वे सिद्ध भगवान मोक्ष में सदा रहते हुए क्या करते हैं, यह कहते हैं
(निष्किट्टिकालिकाच्छवि चामीकरभासुरात्मानः ) कोट और कालिका से रहित कान्ति वाले सुवर्ण के समान जिनका स्वरूप प्रकाशमान हो रहा है ऐसे ( निःश्रेयसमधिपन्नाः ) मोक्ष को प्राप्त हुए सिद्ध परमेष्ठी ( त्रैलोक्यशिखामणिश्रियं ) तीन लोक के अग्रभाग पर चूड़ामणि की शोभा को ( दधते ) धारण करते हैं ।
टोकार्थ - जिस प्रकार कीट - कालिमा से रहित होकर सुवर्ण कान्ति को धारण करता हुआ अतिशय दीप्तिमान होता है, उसी प्रकार द्रव्यकर्म-भावकर्मरूपी कालिमा का अभाव हो जाने से यह आत्मा पूर्णरूप से निर्मल होता हुआ प्रकाशमान रहता है । ऐसे सिद्ध परमेष्ठी लोक के शिखर पर चूड़ामणि की शोभा को धारण करते हैं ।
विशेषार्थ - चौदहवें गुणस्थान में ८५ कर्मप्रकृतियों का
सत्ता से नाश हो जाता है । उनमें उपान्त्य समय में ७२ प्रकृतियों का नाश होता है और अन्तसमय में १३ प्रकृतियों का नाश होकर सिद्धावस्था प्राप्त हो जाती है, अर्थात् लोक के अग्रभाग में अन्तिम तनुवातवलय में सिद्ध जीव विराजित हो जाते हैं। यद्यपि सिद्ध क्षेत्र पैंतालीस लाख योजन का है । तथापि सिद्धजीव तो इसके ऊपर अन्तिम वातवलय में स्थित हैं । वे सर्वथा किट्ट कालिमा से रहित होते हुए शुद्धस्वर्ण के समान द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मों से सर्वथा रहित हैं और सदा लोक के अग्रभाग में देदीप्यमान चूड़ामणि के समान शोभायमान रहते हैं ।। १३ ।। १३४।।