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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार [ २६७ वैयावृत्यं दानं अवते प्रतिपादयन्ति । कथं ? चतुरात्मत्वेन चतुःप्रकारत्वेन । के ते ? चतुरस्राः पण्डिताः । तानेव चतुष्प्रकारान् दर्शयन्नाहारेत्याद्याह-आहारश्च, भक्तपानादिः औषधं च व्याधिस्फेटकं द्रव्यं तयो योरपि दानेन । न केवलं तयोरेव अपि तु उपकरणावासयोश्च उपकरणं ज्ञानोपकरणादिः आवासो वसतिकादिः ।।२७।। . इस प्रकार का फल देने वाला दान चार भेद वाला है, यह कहते हैं ( चतुरस्रा ) विद्वज्जन { आहारोषधयोः ) आहार, औषध ( च ) और (उपकरणावासयोः अपि) उपकरण तथा आवास के भी (दानेन) दान से (वयावत्यं) वैयावृत्य को (चतुरात्मत्वेन) चार प्रकार का (अवते) कहते हैं। ___ टोकार्थ--पण्डितों ने दान का चार प्रकार से निरूपण किया है। यथाप्राहार-भक्त-पानादि को मार कहते हैं । शाकारले नाले दशा को औषधि कहते हैं । ज्ञानोपकरणादिक को उपकरण कहते हैं । वसति आदि को आवास कहते हैं । इन चारों प्रकार की वस्तुओं को देने से वैयावृत्ति के चार प्रकार होते हैं। विशेषार्थ- वैयावृत्य का अर्थ दान भी है। वह दान चार प्रकार का है। आहारदान, औषधदान, उपकरणदान तथा वसतिदान अथवा अभयदान । आहारादि चार प्रकार के दान से पापों का नाश होता है । सम्पदा, आय, काय ये सभी अस्थिर हैं। गार्हस्थ्य की सफलता तो दान से ही है । आहारादि दान के बिना गृहस्थ-जीवन में मात्र पापारम्भ ही किया जाय तो वह पापारम्भ पाषाण की नाव के समान केवल संसार में डुबोने वाला ही है। विवेकी गृहस्थ विचार करते हैं कि धन का उपार्जन अथवा पिता आदि से प्राप्त धन, राज्य, ऐश्वर्य, देश, नगर, वस्त्राभरण, सेवकादि जो सभी प्रकार की अनुकूल सामग्री प्राप्त हुई है, वह पूर्व जन्म में दान दिया था, दीन दुःखी जीवों का पालन-पोषण किया, उसी का फल है । लक्ष्मी तो चंचल है इसका संयोग हुआ है तो नियम से वियोग होगा ही। यह धन बड़े दुनि से महापाप करने से प्राप्त हुआ है । तथा इसके रक्षण करने में महान् कष्ट हुआ, संक्लेश हआ, एक दिन इसको छोड़कर अवश्य मरना ही है। इस संसार में अनेक करोड़पति अरबपति देखे जाते हैं किन्तु उनके भी भोगने में तो पेट भर अनाज और शरीर पर वस्त्र, सोने के लिए शरीर प्रमाण भूमि ही आती है किन्तु यह मानव तृष्णा के वशीभूत होकर रात
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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