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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ १३ विशेषार्थ---सत्यार्थ आप्त-आगम-गुरु का तोन मूढ़ताओं रहित और आठ अंगों सहित श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । आप्त का सामान्यतया प्रसिद्ध अर्थ यह है कि'यो यत्रावञ्चकः स तत्र प्राप्तः' अर्थात् जो जिस विषय में अवञ्चक है, वह उस विषय में आप्त है । जिसने अपने वास्तविक गुणों के घातक चार घातिया कर्मों को नष्ट करके अपने शुद्ध केवलज्ञानादि गुणों को प्राप्त कर लिया है, उसे प्राप्त कहा जाता है। और आप्त के द्वारा प्रतिपादित समस्त वस्तुतत्त्व का परिज्ञान जिसके द्वारा हो वह आगम है। जिस क्रिया के द्वारा आत्मा अपने समस्त दोषों से रहित होकर सर्वथा विशुद्ध अवस्था को प्राप्त कर ले, उसे तप कहते हैं। और असाधारण निर्जरा के कारणभूत तप के करने वाले लपस्वी कहलाते हैं। इस प्रकार आप्त, आगम और गुरु को श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन कहलाता है। सम्यग्दर्शन को निर्दोष रखने के लिए तीन मढ़ताओं और आठ मदों से दूर रहना चाहिए । तथा आठ अंगों का परिपालन करना चाहिए ।
आगम में प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य को सम्यग्दर्शन का लक्षण बताया है । यह भी अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय के अभाव से सम्बन्ध रखता है । मतलब यह है कि अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय के अभाव से होने वाले प्रशमादिक भाव ही वास्तव में सम्यग्दर्शन के लक्षण माने गये हैं और यह संगत भी है। साथ ही इन प्रशमादि भावों से युक्त आस्तिक्य को भी लक्षण माना गया है ।
करणानुयोग ग्रन्थों में मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात कर्म प्रकृतियों के उपशम, क्षय या क्षयोपशम होने पर जो आत्मश्रद्धान होता है, उसे सम्यग्दर्शन कहा है।
द्रव्यानुयोग में- अपने-अपने वास्तविक स्वरूप सहित जीवादि सात तत्त्व, छह द्रव्य, पञ्चास्तिकाय और नौ पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहा है । तथा इसी अनुयोग के अन्तर्गत आत्मतत्त्व का वर्णन करने वाले अध्यात्म ग्रन्थों में परद्रव्य से भिन्न शुद्ध आत्मतत्त्व का श्रद्धान सम्यग्दर्शन कहा गया है ।
इस प्रकार विवक्षित भेद से पृथक्-पृथक् लक्षण किया जाता है किन्तु वास्तव में, इनमें कोई भेद नहीं है ।।४।।
तत्र सद्दर्शनविषयतयोक्तस्याप्तस्य स्वरूपं व्याचिरघ्यामुराह