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दिया जाता है । कहा भी है- पड़गाहन, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, पूजन, प्रणाम. मन शुद्धि, वचनशुद्धि कायशुद्धि और आहारशुद्धि पुण्य उपार्जन के इन नौ कारणों के साथ आहार दान दिया जाता है । यही नवधाभक्ति कहलाती है ।
रश्नकरण्ड श्रावकाचार
विशेषार्थ - इस श्लोक में दान, दाता, पात्र और दान की विधि बतलाई है । उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय में कहा है – 'अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गोदानम्' स्व-पर उपकार के लिए अपने द्रव्य को देना दान है ।
'विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः ' दान देने की विधि विधिविशेष. द्रव्यविशेष, दाता विशेष और पात्रविशेष होने से दान के फल में विशेषता आती है ।
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विधिविशेष—पूर्वाचार्यों ने यथायोग्य भक्तिपूर्वक उपचार से विशेषता को प्राप्त प्रतिग्रह, उच्चस्थान, पाद प्रक्षालन, पूजा, नमस्कार, मनः शुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और एषणाशुद्धि अर्थात् भोजन की शुद्धि ये नौ विधियाँ बताई हैं । उत्तम पात्रों को दान देने की ये नौ विधियाँ हैं । अपने घर के द्वार पर यति को देखकर 'मुझ पर कृपा करें' ऐसी प्रार्थना करके तीन बार नमोस्तु; और तीन बार 'स्वामिन् ! तिष्ठ' कहकर ग्रहण करना प्रतिग्रह है । यति के स्वीकार करने पर उन्हें अपने घर के भीतर ले जाकर निर्दोष बाधा रहित स्थान में ऊँचे आसन पर बैठाना यह दूसरी विधि है । साधु के आसन ग्रहण कर लेने पर प्रासुक जल से उनके पैर धोना और प्रक्षालन के जल की वन्दना करना तीसरी विधि है । पैर धोने के बाद साधु की पूजन करना चौथी विधि है। पूजन के बाद पंचांग नमस्कार विधि है, इसके बाद चार शुद्धियाँ हैं ।
उनके पाद अष्टद्रव्य से करना छठी
आहार देते समय आतं, रौद्र, ध्यान का न होना मनः शुद्धि है । कठोर वचन न बोलना वचनशुद्धि है । जातिसंकरता, वर्णसंकरता, वीर्यं संकरता से रहित जिसकी पिण्डशुद्धि है तथा शरीर की बाह्यशुद्धि से सहित कायशुद्धि कहलाती है । चौदह मलदोषों से रहित आहार को यत्नपूर्वक शोधकर साधु के हस्तपुट में देना भोजनशुद्धि है । सभी पर्वाचार्यों ने इन नौ उपायों को स्वीकार किया है । उक्त विधि आदर और भक्ति
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