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________________ [ २५७ स्वास्थ्य और संयम के अनुकूल आहार, औषधि आदि आहार में देना, आदि सब वैयावृत्य है । रत्नकरण्ड श्रावकाचार आगम में मुनियों के छह अन्तरंग तप वर्णित हैं । उनमें वैयावृत्य भी एक तप है । इसका अर्थ है बाल वृद्ध अथवा रुग्ण आदि मुनियों की सेवा, वैयावृत्ति करके उनको मार्ग में स्थिर रखना, क्योंकि 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' परस्पर की सहानुभूति परस्पर एक दूसरे का उपकार करना ही मानव का कत्तं व्य है । इस प्रकार के उपकार आदि से ही चतुर्विधसंघ का निर्वाह एवं संचालन होता है। स्वामी आचार्य ने आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इन दस प्रकार के मुनियों की वैयावृत्ति करने से वैयावृत्ति तप के दस भेद हो जाते हैं ऐसा कहा है । गृहस्थ भी शिक्षाव्रत के अन्तर्गत वैयावृत्यनामक शिक्षाव्रत का परिपालन करते हैं। क्योंकि शिक्षाव्रतों के परिपालन करने से मुनि बनने की शिक्षा मिलती है । वैयावृत्य शिक्षाव्रत में सभी दान समाविष्ट हो जाते हैं । वैयावृत्ति ग्लानि छोड़कर समादरपूर्वक करनी चाहिए | स्वार्थवश की गई सेवा, वैयावृत्ति धर्म का अंग नहीं हो सकती । वैयावृत्ति अन्तरंग तप है और तप से कर्मों का संवर और निर्जरा होती है । २२११२ । अथ किं दानमुच्यते इत्यत आह- नवपुण्यैः प्रतिपत्तिः सप्तगुणसमाहितेन शुद्ध ेन । अपसूनारम्भाणाभार्यारणामिष्यते दानम् ॥ २३ ॥ दानमिष्यते । कासौ ? प्रतिपत्तिः गौरवा आदरस्वरूपा । केषां ? आर्याणां सद्दर्शनादिगुणोपेतमुनीनां । किं विशिष्टानां ? अपसूनारम्भाणां सूना: पंचजीवघातस्थानानि । तदुक्तम् खंडती पेषणी चुल्ली उदकुम्भः प्रमार्जनी । पंचसूना गृहस्थस्य तेन मोक्षं न गच्छति ॥१३॥ खंडनी उल्खलं, पेषणी घरट्टः, चुल्ली चुलूकः, उदकुभः उदकघटः, प्रमाजिनी बोहारिका । सूनाश्चारंभारच कृष्यादयस्तेऽपगता येषां तेषां । केन प्रतिपत्तिः कर्तव्या ? सप्तगुणसमाहितेन । तदुक्तं- श्रद्धा तुष्टिर्भक्तिर्विज्ञानमलुब्धता क्षमा सत्यं । यस्यैते सप्तगुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति ।।
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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