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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । वैयावृत्यं यावानुपग्रहोज्योऽपि संयमिनाम् ॥२२॥
व्यापत्तयो विविधा व्याध्यादिजनिता आपदस्तासां व्यपनोदोविशेषेणापनोदः स्फेटनं यत्तद्वैयावत्यमेव । तथा पदयोः संवाहनं पादयोमर्दनं । कस्मात् ? गुणरागात भक्तिवशादित्यर्थः न पुनर्व्यवहारात् दृष्टफलापेक्षणाद्वा । न केवलमेतावदेव वैयावत्यं किन्तु अन्योऽपि संयमिनां देशसकलबतानां सम्बन्धी यावान् यत्परिमाण उपग्रह उपकारः स सर्वो वैयावृत्य मेवोच्यते ।।२२।।।
केवल दान ही वैयावृत्य नहीं कहलाता है किन्तु संयमीजनों की सेवा भी वैयावृत्य कहलाती है, यह कहते हैं
(गुणरागात् ) सम्यग्दर्शनादि गुणों की प्रीति से ( संयमिनां ) देशव्रत और सकलव्रत के धारक संयमीजनों की ( व्यापत्तिव्यापनोदः ) आई हुई नाना प्रकार की आपत्ति को दूर करना (पदयो:) पैरों का, उपलक्षण से हस्तादिक अङ्गों का (संवाहन) दाबता (च) और इसके सिवाय (अन्योऽपि) अन्य भी (यावान्) जितना (उपग्रह) उपकार है (स:) वह सब (वैयावृत्यम्) वयाबृत्य (उच्यते) कहा जाता है ।
टोकार्थ-संयमी दो प्रकार के हैं देशव्रती और सकलव्रती । इन संयमीजनों पर व्याधि आदि अनेक प्रकार की आयी हुई आपत्तियों को गुणानुराग-भक्ति से प्रेरित होकर दूर करना उनके पैर आदि अंगों का मर्दन करना-दबाना तथा अन्य भी अनुकल सेवा वैयावत्ति करना यह वैयावृत्य नामक शिक्षानत है। यह बयावृत्ति केवल व्यवहार अथवा किसी दृष्टफल की अपेक्षा से न करके भक्ति के वशीभूत होकर की जाती है ।
विशेषार्थ- साधुओं पर यदि देव, मनुष्य तिर्यंच अथवा अचेतन कृत उपसर्ग हो जाय तो थावक का कर्तव्य है कि वह अपनी शक्ति को न छिपाते हुए उनका उपसर्ग दुर करे । मार्ग में यदि चोर भील आदि दुष्ट जीवों के द्वारा कष्ट पहुँचाने से परिणामों में क्लेश हो गया हो तो उनको धैर्य धारण कराना चाहिए । मार्ग में चलने से थकावट था श्रम होता है उसे दूर करने के लिए उनके पादमर्दन आदि करना, यदि रोगी हैं तो उनके संयम में मलिनता उत्पन्न न हो ऐसे यत्नाचार से आसन, शय्या, वसतिका शोधन, यत्न से उनको उठाना-बैठाना, शयन कराना, मल-मूत्रादिक की बाधा दूर करवाना,