________________
१५० ]
रत्नकरण्ड श्रावकाचार सोमदेव प्राचार्य ने किसी बात को बढ़ाकर कहना, दूसरे के दोषों को कहना, असभ्य वचन बोलना, इनको असत्य कहा है और उसके त्याग को सत्याणुव्रत कहा है । अमितमति प्राचार्य ने भी निन्दनीय धार्मिकों के द्वारा अनादरणीय वचन को तथा अनिष्ट वचन को असत्य कहा है। इन्होंने अमृतचन्द्राचार्य के द्वारा कहे गये असत्य के चार भेदों को भी बताया है। वसुनन्दि प्राचार्य ने राग-द्वेष से झूठ न बोलने को तथा प्राणियों का धात करने वाले सत्य वन भी : बोने को रस.स. कहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि तत्त्वार्थसूत्र के असत् कथन को असत्य कहते हैं। इस लक्षण को आगे के ग्रन्थकारों ने विस्तृत या स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है । स्वामी समन्तभद्र ने उसे स्थूल झूठ के रूप में लिया है और जिस सत्य से अपने पर या दूसरों के प्राणों पर आपत्ति आती हो ऐसे सत्य को भी असत्य ठहराया है क्योंकि वह भी असत् की परिभाषा में आता है। जिनसे किसी प्राणी को पीड़ा पहुंचे वे सब वचन अप्रशस्त या असत् हैं चाहे वे विद्यमान को कहते हों चाहे अविद्यमान अर्थ को कहते हो । असत् की यह परिभाषा पूज्यपाद स्वामी ने की है। अतः जो बस्तु जैसी देखी हो या सुनी हो उसको वैसा कहना यह सत्य की एकांगी परिभाषा है । जैन धर्म में मूलबत अहिंसा है। अतः जिस सत्य से हिंसा होती हो, वह सब असत्य की कोटि में आता है। वैसे तो सत्य बोलने से स्वार्थ का घात होता है और स्वार्थ का घात होने से व्यक्ति को कष्ट पहुँचता है । किन्तु ऐसे सत्य वचन को हिंसा नहीं कह सकते । यदि कहें तो फिर सत्य बोलना ही असम्भव हो जायेगा। अतः स्वार्थघाती सत्य असत्य नहीं है, किन्तु प्राणघाती सत्य ही असत्य में सम्मिलित है। इसलिए ऐसा सत्य भी नहीं बोलना चाहिए। सदा हित-मित-प्रिय वचन बोलना चाहिए ।।६।।५।।
साम्प्रतं सत्याणुव्रतस्यातीचारानाहपरिवादरहोभ्याख्यापैशुन्यं कूटलेखकरणं च । न्यासापहारितापि च व्यतिक्रमाः पञ्च सत्यस्य ॥6॥ ११!!
परिवादो मिथ्योपदेशोऽभ्युदय निःश्रेयसार्थेषु क्रियाविशेषेष्वन्यस्यान्यथाप्रवर्तनमित्यर्थः । रहोऽभ्याख्या रहसि एकान्ते स्त्रीसाभ्यामनुष्ठितस्य क्रियाविशेषस्याभ्याख्याप्रकाशनं । पैशुन्यं अंगविकारभ्रू विक्षेपादिभिः पराभिप्रायं ज्ञात्वा असूयादिना तत्प्रकटनं साकारमंत्रभेद इत्यर्थः। कूटलेखकरणं च अन्येनानुक्तमननुष्ठितं यत्किचिदेव तेनोक्त