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________________ रलकरण्ड श्रावकाचार टोकार्थ-इन्द्रियादि प्राणों का वियोग करना प्राणातिपात है। असत्य बचन बोलना वितथव्याहार है। स्वामी की आज्ञा के बिना किसी वस्तु को ग्रहण करना चोरी है । मैथुन-सेवन काम है, और लोभ के वशीभूत होकर बाह्य परिग्रह को ग्रहण करना परिग्रह-मूछौं है । ये पाँच पाप स्थूल और सूक्ष्म की अपेक्षा दो प्रकार के हैं । इनमें स्थूल पापों से विरक्त होना अणुव्रत कहलाता है। अणुव्रतधारी जीवों के सूक्ष्म सम्पूर्ण पापों का त्याग होना असम्भब है। इसलिए वे स्थूल हिंसादि पापों का ही त्याग कर अणुव्रत धारण कर सकते हैं । अहिंसाणु व्रतधारी पुरुष असहिंसा से तो विरक्त होता है, परन्तु स्थावर हिंसा से निवृत्त नहीं होता। सत्याणुव्रत का धारक पापादिक के भय से पर पीड़ाकारकादि स्थूल असत्य वचन से निवृत्त होता है, किन्तु सूक्ष्म असत्य वचन से नहीं। अचौर्याणुव्रत का धारी पुरुष. राजादिक के भय से दूसरे के द्वारा छोड़ी गई अदत्तवस्तु का स्थूलरूप से त्यागी होता है, सूक्ष्मरूप से नहीं । ब्रह्मचर्याणुव्रत का धारक पाप के भय से दूसरे की गृहीत अथवा अगृहीत स्त्री से विरक्त होता है, स्वस्त्री से नहीं। इसी प्रकार परिग्रह परिमाणाणून्नत का धारी पुरुष धनधान्य तथा खेत आदि परिग्रह का अपनी इच्छानुसार परिमाण करता है, इसलिए स्थूल परिग्रह का ही त्यागी होता है; सूक्ष्म का नहीं । ये हिंसादि कार्य पापरूप हैं । क्योंकि पाप कर्मों के मानव के द्वार हैं। इनके निमित्त से जीव के सदा पापकर्मों का आस्रव होता रहता है। विशेषार्थ-जिसके संयोग से जीव जीता है और जिसके वियोग होने पर मरण जाना जाता है, उसे प्राण कहते हैं । द्रव्य प्राण और भाव प्राण की अपेक्षा प्राण के दो भेद हैं। द्रव्य प्राण के दस भेद हैं-पांच इन्द्रियां स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्ष और कर्ण । तीन बल-मनबल, बचनबल, कायबल और प्रायु तथा श्वासोच्छवास । ज्ञान, दर्शनादिगुणरूप भाव प्राण हैं। इन प्राणों का संकल्पपूर्वक घात करना प्राणातिपात कहलाता है, जिसे हिंसा कहते हैं। जो जीवों को मारने के संकल्प का त्याग कर प्रस की हिंसा से विरक्त होता है, वह स्थूल हिंसा के त्यागरूप अहिंसाणुनत है। जो वस्तु जैसी नहीं है, उसे उस प्रकार कहना, जिस. वचन व्यवहार से अन्य प्राणी का घात हो, अपवाद हो, धर्म की हानि हो, कलह हो, संक्लेश हो, भयादि प्रकट हो जाय ऐसे क्रोध के वचन, लोभ के वचन, कलह के वचन, हास्य के वचन, निन्दारूप वचन तथा गहिप्तादि ये सभी प्रकार के वचन असत्य वचन कहलाते हैं, सत्याणुव्रत का धारक स्थूल
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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