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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ १०१ से गृहस्थ भी मुनि से अधिक उत्कृष्टता को प्राप्त हो जाता है । तथा तीनी कालों और तीनों लोकों में मिथ्यात्व के समान कोई भी अनुपकारक-अकल्याणप्रद नहीं है, क्योंकि उसके सद्भाब में व्रत और संयम से सम्पन्न मुनि भी गृहस्थ की अपेक्षा हीनता को प्राप्त होता है।
विशेषार्थ---यह कारिका इस बात को स्पष्ट करती है कि सम्यग्दर्शन का फल पारलौकिक संसार और उसके कारणों की निवृत्तिपूर्वक आत्मा के निजशुद्ध स्वभाव को प्रकट करना या प्रकट हो जाना तो है ही किन्तु ऐहिक-अभ्युदय विशेष भी इसके फल हैं। जो कि आत्मा के शुद्ध स्वभाव से भिन्न होते हुए भी उसके साहचर्य एवं निमित्त की अपेक्षा रखते हैं। जो बात युक्ति, आगम और अनुभव से सिद्ध है उसको प्रकट न करके प्राणियों को सत्यमार्ग से बंचित करके भ्रम में डालना महान् पाप है, ऐसा अज्ञानमूलक गृहीत दुराग्रह ही तो मिथ्यात्व है और यह मिथ्यात्व सत्यार्थ मार्ग का पूर्णरूप से विरोधी है। इसलिए मुमुक्षुओं को वीतराग सर्वज्ञ की वाणी और इस वाणी का प्रचार-प्रसार करने वाले सच्चे गुरुओं के मार्गदर्शन में अपनी आत्मा को सन्मार्ग में लगाना चाहिए ।
आचार्यश्री ने जिस धर्म का वर्णन करने की प्रतिज्ञा की थी उसके बाद की कारिका संख्या ३ में बतलाया है कि सम्यग्दर्शनादि धर्म हैं अर्थात् वे कर्मों के और उनके फलस्वरूप दुःखों के विघातक हैं और उत्तम सुखरूप अवस्था के साधक हैं । और इसके विपरीत मिथ्यात्व दुःखरूप संसार का मार्ग है । रत्नत्रयी मोक्षमार्ग में प्रधानभूत नेतृत्व सम्यग्दर्शन का ही है । यद्यपि ज्ञान-चारित्र भी अपना असाधारणरूप रखते हैं, फिर भी उनमें समीचीनता का पुट लगाकर उनको मोक्षमार्गी बना देने का श्रेय तो सम्यग्दर्शन का ही है । इसलिए आचार्यश्री ने सम्यग्दर्शन की यशोगाथा गाई है कि सम्यक्त्व के समान तीनों लोकों में तीनों कालों में इन्द्र अहमिन्द्र चक्रवर्ती नारायण बलभद्र, तीर्थंकरादि समस्त चेतन और मणि मन्त्र औषधिआदिक समस्त अचेतन द्रव्य इनमें से कोई भी सम्यक्त्व के समान उपकारक नहीं है और इस जीव का सबसे अधिक अपकार करने वाला मिथ्यात्व है। अब तक जिन अनन्त जीवों ने संसार के अनन्त दुःखों से छुटकारा पाकर अनन्त शाश्वत सुख प्राप्त किया है और कर रहे हैं या आगे प्राप्त करेंगे, उसका श्रेय सम्यग्दर्शन को ही है, इसलिए सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए ।।३४।।