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________________ (२०) विषय श्लोक १०४ ११० १२० १२८ सम्यग्दृष्टि से जीव श्रेष्ठ मनुष्य होते है सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रपद प्राप्त करते हैं सम्यग्दृष्टि जीव चक्रवर्ती पद प्राप्त करते हैं सम्यग्दृष्टि जीव धर्म चक्र के प्रवर्तक तीर्थंकर होते हैं सम्यग्दृष्टि जीव मोक्ष प्राप्त करते हैं सम्यग्दर्शन की महिमा का उपसंहार द्वितीय अधिकार सम्यग्ज्ञान का स्वरूप प्रथमानुयोग का स्वरूप करणानुयोग का स्वरूप चरणानुयोग का स्वरूप द्वव्यानुयोग का स्वरूप तृतीय अधिकार चारित्र कौन धारण कर सकता है रागद्वेष की निवृत्ति से हिसादि की निवृत्ति होती है चारित्र का लक्षण चारित्र के भेद विकल चारित्र के भेद अणुव्रत के ५ भेद अहिंसाणुव्रत का लक्षण अहिंसाणुव्रत के अतिचार सत्याणुव्रत के लक्षण सत्याणुव्रत के अतिचार अचौर्याणुव्रत के लक्षण rx rUd० १४२ १४५ १४८ ० १५३
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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